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५८ ऋछ़्वेद संहिता भाग - २

२८२८. ज्योतिर्वणीत तमसो विजानन्नारे स्याम दुरितादभीके ।

इमा गिरः सोमपाः सोमवृद्ध जुषस्वेन्द्र पुरुतमस्य कारोः ॥७ ॥

विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न इन्द्रदेव ने गहन तमिल्ला में ज्योति को प्रकट किया । हम सब पापों से दूर होकर भय

रहित स्थान मे रहें.। हे सोम पीने वाले तथा सोम से वृद्धि पाने वाले इन्द्रदेव ! श्रेष्ठतम स्तुतिकर्त्ता की इन स्तुतियों

को ग्रहण करें ॥७ ॥

२८२९. ज्योतिर्यज्ञाय रोदसी अनु ष्यादारे स्याम दुरितस्य भूरे: ।

भूरि चिद्धि तुजतो मर्त्यस्य सुपारासो वसवो बर्हणावत्‌ ॥८ ॥

(सृष्टि का संतुलन बनाये रखने वाले) यज्ञ के लिए सूर्यदेव द्यावा-पृथिवो को प्रकाशित करें हष विविध

पारो से दूर रहें । हे दुःखतारक वसुदेवो ! आप हम यजनकर्त्ता मनुष्यों को विपुल धन राशि से पूर्ण करें ॥८ ॥

२८३०. शुनं हुवेप मघवानमिन्द्रमस्मिन्धरे नृतमं वाजसातौ ।

शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सज्जितं धनानाम्‌ ॥९॥

हम अपने जीवन-संग्राम में संरक्षण प्राप्ति के लिए ऐश्वर्यवान्‌ इन्द्रदेव का आवाहन करते हैं, क्योकि वे

पवित्रकर्त्ा, श्रेष्ठ नेतृत्वकर्ता, हमार स्तुतियों को कृपापूर्वक सुनने वाले, उग्र, युद्धो में शत्रुओं का विनाश करने

वाले और धनो के विजेता हैं ॥९ ॥

[ सूक्त - ४० |

[ऋषि- विश्वामित्र गाथिन । देवता- इन्द्र । छन्द- गायत्रो । |

२८३१. इन्द्र त्वा वृषभं वयं सुते सोमे हवामहे । स पाहि मध्वो अन्धसः ॥१ ॥

साधको की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाते हे इन्द्रदेब ! अभिषुत सोम का पान करने के निमित्त हम

आपका आवाहन करते है । आप अत्यन्त मधुर हविष्यात्र युक्त सोम का पान करे ॥१ ॥

२८३२. इनदर क्रतुविदं सुतं सोमं हर्य पुरुष्ठत | पिबा वृषस्व तातृपिम्‌ ॥२ ॥

है हरि संज्ञक अश के स्वामी ओर बहतो द्वारा प्रशंसित इन्द्रदेव आप अभीष्टवर्षक हैं। यह अभिषुत सोम

आपको तृप्त करने के लिए इस यज्ञ पे विधिवत्‌ तैयार किया गया है आप इसका पान करें ॥२ ॥

२८३३. इन्द्र प्र णो धितावानं यज्ञं विश्वेभिदेंवेभि: । तिर स्तवान विश्पते ॥३ ॥

हे स्तुत्य और प्रजापालक इन्द्रदेव ! आप सम्पूर्णं पूजनीय देवो के साथ हमारे इस हव्यादि द्रव्यों से पूर्ण यज्ञ

को संवर्द्धित करें ॥३ ॥

२८३४ इन्द्र सोमाः सुता इमे तव प्र यन्ति सत्पते। क्षयं चन्द्रास इन्दवः ॥४ ॥

हे सत्यवरतियों के अधिपति इन््रदेव ! ये दीप्तियुक्त, आह्वादक और अभिषुत सोमरस आपके स्थान की ओर

उन्मुख है (अर्धात्‌ आपको समर्पित है) , इसे ग्रहण करें ॥४ ॥

२८३५. दधिष्वा जठरे सुतं सोपमिन््र वरेण्यम्‌ । तव द्युक्षास इन्दवः ॥५ ॥

है इद्धदेव ! यह अभिषुत सोम आपके द्वारा वरण करने योग्य है; क्योंकि यह दीप्तिमान्‌ ओर आपके पास

स्वर्ग में रहने योग्य है । आप इसे अपने उदर में धारण करें ॥५ ॥

२८३६. गिर्वणः पाहि नः सुतं मधोर्धाराभिरज्यसे । इन्द्र त्वादातमिद्यशः ॥६ ॥ `

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