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» झान्तिक एवं पौष्टिक कर्मो तथा नवप्रह-झान्तिकी विधिका वर्णन +
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आ्नुखार सभी ब्राह्मणोंको सुयर्णसे अलैकृत गौएँ अथवा
केवल सुवर्ण दान करना चाहिये। पर सर्वत्र मन्त्रोच्चारणपूर्वक
ही इन सभी दक्षिणाओंके देनेका विधान है ।
दान देते समय सभी देय वस्तुओंसे पृथक्-पृथक् इस
प्रकार प्रार्थना करनी चाहिये--'कपिले ! तुम रोहिणीरूप हो,
तीर्थ एवं देवता तुम्हारे स्वरूप हैं तथा तुम सम्पूर्ण देवोकी
पूजनीया हो, अतः मुझे शान्ति प्रदान करो। शङ्खं ! तुम
पुण्योके भी पुण्य और मङ्गलोकि भी मङ्गल हो। भगवान्
विष्णुने तुम्हें अपने हाथमें धारण किया है, इसलिये तुम मुझे
शान्ति प्रदान करो । जगत्को आनन्दित करनेवाले वृषभ ! तुम
वृषरूपसे धर्म और अष्टमूर्ति शिवजीके वाहन हो, अतः मुझे
शान्ति प्रदान करो । सुवर्णं ! तुम ऋह्माके आत्मस्वरूप, अग्निके
स्वर्णणय बीज और अनन्त पुष्यके प्रदाता हो, अतः मुझे शान्ति
प्रदान करो। दो पीले वस्त अर्थात् पीताम्बर भगवान्
श्रीकृष्णको परम प्रिय हैं, इसलिये विष्णो ! उसको दान करनेसे
आप मुझे शात्ति प्रदान करें। अश्च ! तुम अश्वरूपसे विष्णु हो,
अमृतसे उत्पन्न हुए हो तथा सूर्य एवं चन्द्रमाके नित्य वाहन हो,
अतः मुझे शान्ति प्रदान करो । पृथ्वी ! तुम समस्त धेनुस्वरूपा,
कृष्ण (गोविन्द) नामवाली और सदा सम्पूर्ण पापोंको हरण
करनेवाली हो, इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो । लौह ! चकि
विश्वके सभी सम्पादित होनेवाले लौह-कर्म हल एवं अस
आदि सारे कार्य सदा तुम्हारे ही अधीन हैं, इसलिये तुम मुझे
शान्ति प्रदान करो । छग ! चूँकि तुम सम्पूर्ण यज्ञॉके मुख्य
अङ्गरूपसे निर्धारित हो और अप्रिदेवके नित्य वाहन हो,
इसलिये मुझे शान्ति प्रदान करो । गौ ! चैकि गौओकि अङ्गोमि
चौदहों भुवन निवास करते है, इसलिये तुम मेरे लिये इहलोक
एवं परलोकमे भी कल्याण प्रदान करो । जिस प्रकार भगवान्
केशव तथा शिवकी शय्या कभी शून्य नहीं रहती, बल्कि
लक्ष्मी तथा पार्वतीसे सदा सुशोभित रहती है, वैसे ही मेरे द्वार
भी दान की गयी शय्या जन्म-जन्ममें सुखसे सम्पन्न रहे। जैसे
सभी रननोमे समस्त देवता निवास करते हैं, वैसे ही रल -दान
करनेसे वे देवता मुझे शान्ति प्रदान करें । सभी दान भूमिदानकी
सोलहबीं कलाकी भी समता नहीं कर सकते, अतः भूमि-दान
करनेसे मुझे इस लोके शान्ति प्राप्त हो ।' इस प्रकार कृपणता
छोड़कर भक्तिपूर्वक रत्न, सुवर्ण, वस्नसमूह, धूप, पुष्पमाला
फरवरी १५--
और चन्दन आदिसे ग्रहोंकी पूजा करनी चाहिये।
राजन् ! अब आप भक्तिपूर्वक ग्रहोंके स्वरूपोंकों सुनै--
(चित्र-प्रतिमादि विधानि) सूर्यदेवकी दो भुजाएँ निर्दिष्ट हैं, वे
कमलके आसनपर विराजमान रहते हैं, उनके दोनों हाथोंमें
कमल सुशोभित रहते हैं। उनकी कान्ति कमलके भीतरी
भागकी-सी है और वे सात घोड़ो तथा सात रस्सियोंसे जुते
रथपर आरूढ रहते हैं। चन्द्रमा गौरवर्ण, शेत वस्र और श्वेत
अश्युक्त रै तथा उनके आभूषण भी श्वेत वर्णके दै ।
धरणीनन्दन मंगलकी चार भुजाएँ है । वे अपने चारों हाथोंमें
खड़ , ढाल, गदा तथा वरद-मुद्रा धारण किये हैं, उनके
शरीरकी कान्ति कनेरके पुष्प-सरीखी है। वे लाल रैगकी
पुष्पमाला और वस्त्र धारण करते हैं। बुध पीले रेंगकी
पुष्पमाला और वख धारण करते हैं। पीत चन्दनसे अनुलिप्त
हैं। वे दिव्य सोनेके रथपर विराजमान हैं। देवताओं और
दैल्योंके गुरु बृहस्पति और शुक्रकी प्रतिमाएँ क्रमशः पीत और
श्वेत वर्णकी होनी चाहिये। उनके चार भुजाएँ हैं, जिनमें ये
दण्ड, रुद्राक्षकी माला, कमण्डलु और वरमुद्रा घारण किये
रहते हैं। शनैश्रसकी शरीर-कान्ति इनद्रनीलमणिकी-सी है। वे
गीधपर सवार होते हैं और हाथमें धनुष-बाण, त्रिशूल और
वरमुद्रा धारण किये रहते हैं। गहुका मुख सिंहके समान
भयंकर है। उनके हाथोंमें तलवार, कवच, त्रिशूल और
वसमुद्रा शोभा पाती है तथा ये नीले रैगके सिंहयसनपर आसीन
होते हैं। ध्यान (प्रतिमा) में ऐसे ही राहु प्रशस्त माने गये हैं।
केतु बहुतेरे हैं। उन सबकी दो भुजा हैं। उनके शरीर आदि
धूम्रवर्णके हैं। उनके मुख विकृत हैं। वे दोनों हाथोंमें गदा एवं
वरमुद्रा धारण किये हैं और नित्व गीघपर समासीन रहते हैं।
इन सभी लोक-हितकारी ग्रहोंको किरीटसे सुशोभित कर देना
चाहिये तथा इन सबकी ऊँचाई अपने हाथके प्रमाणसे एक सौ
आठ अङ्गुल (साढ़े चार हाथ) की होनी चाहिये।
हे पाण्डुनन्दन ! यह मैंने आपको नवप्रहोंका स्वरूप
बतलाया है। विद्वान् पुरुषको चाहिये कि ऐसी प्रतिमा बनाकर
इनकी पूजा करे। जो मनुष्य उपर्युक्त विधिसे प्रहोंकी पूजा
करता है, वह इस लोकमें सभी कामनाओंको प्राप्त कर लेता
है तथा अन्तमे स्वर्गलोकमें प्रतिष्ठित होता है। यदि किसी
निर्धन मनुष्यको कोई ग्रह नित्य पीडा पहुँचा रहा हो तो उस