४३४ | [ मत्स्य पुराण
करावे। उस नाभि की भिन्नसा और विस्तार में अंगुल ही कीत्तित
किया गया है । नाभि के नीचे एक भाग से मेढ की रचना की कल्पना
करे और दो भागों के दवारा आयत ऊरूओं एव चार अ'गुल के प्रमाण
वाले जानुओं की रचना करानी चाहिए ।२७-२८।
जङ्घ द्विभागेविख्यातेपादौ च चतरंगुलो ।
चत्. देणांगुलस्तद्वन्मौलिरस्य प्रकोतितः ।२९
ऊद्ध -वेमानमिदं प्रोक्त पृथुत्वञ्चनिबोधत ।
सर्वावियवमानेषु विस्तारं शृणुत द्विजाः ।३०
चत्.रगुलं याटं स्यादृध्वे नासा तथेव च ।
दरयंगरुलन्त्, हनुज्ञ यमोष्ठ: स्वांगुलसम्मितः ।३१
अष्टांगुले ललाटे च तावन्मात्रे भ्र् वी मते।
अद्धा गुलाभ्र् वोर्लेखा मध्ये धनुरिवानता ।३२
उन्नताग्रा भवेत्पाश्वे एलक्ष्णा तीक्ष्णा प्रशस्यते ।
: अक्षिणी द्वयंगुला यामे तदधं चैव विस्तरे ।३३
उन्नतोदरमध्ये त्, रक्ता ते शुभलक्षणे ।
तारकाधेविभागेन इष्टिः स्यात्पञ्जचभागिका ।३४
द्यंगुलन्त्, भ्र् वोमेध्ये नासामूलमर्थांगुलस् ।
नासाग्रबिस्तरं तद्वत् पुटद्वयमथानतम् ।३५
दो भागों वाले जघन विख्यात हैं और दोनों षाद चार अगल के
मान वाले होने चाहिए । उसी भांति चौदह अगल का उस प्रतिमा का
मौलि कीत्तित किया है । यह इसका ऊर्ध्वं मान बताया गया है अब
उसके प्ृथुत्व को भी समझ लेना चाहिए । हे द्विजगणो ! समस्त अव-
यवों के मानों में जो भी विस्तार होता है उसका भी श्रवण ` करलो।
।२६-३०। चार अंगुल का ललाट होता है उसी भाँति से ऊध्वं भागमें
नासिका हुआ करती है । दो अगुल का हनु (ठोडी) जाननी चाहिए
जौर ओष्ठ अपने अ गुल के सम्मित होते हैं ? आठ अगुल के ललाट में