विशुक्र विषंग वध वर्णन |] [ ३६१
तमादिश समस्तानां शक्तीनां तर्षनुत्तये ।
नाल्पः पानीयपानादयैरेतासां त्संक्षयः ॥५६
हा ! विध्राताका क्या क्रम है। यह अस्त्र तो हमारी सेनाको
शिश्िल कर रहा है। सबके तालुमूल सूख गये हैं और सबके आयुध भ्रष्ट
हो गये हैं। इस युद्ध में शक्तियों का मण्डल उपेक्षित हो गया है ।५०। न तो
कोई भी युद्ध करती है और न कोई आयुध ही ग्रहण कर रही है। है
आलि ! तालुमूलों के शुष्क हो जाने से ये तो बोलने में भी असमर्थ हो गयी
हैं ।५१। हमारी ऐसी दशा को सुनकर महेश्वरी क्या कहेगी । देत्यों ने तो
हमारा गड़ा ही अपकार किया है। इसका कोई उपाय सोचना चाहिए ।५२
है पोत्रिणि सोलह हजार सर्वत्र यहाँ पर भक्षौहिणी हैं। ऐसी एक भी
शक्ति नहीं है जो तषं से पीडित न होवे ।५३। इसी अवसर सेना को हथि-
यारों को . छोड़ते वाली देखकर ये दानव छिद्रो में प्रहार करने वाले हैं और
बाणों से निहनन कर रहे हैं। यह बड़े ही खेद की बात है ।५४। यहाँ पर
तुमको और मुझको कोई उपाय करना चाहिए। उस समरोद्यम में कुछ
करना ही है। तुम्हारे रथ के पव में स्थित जो शीत का महाणंव है ।५५। `
उसको ही शक्तियों की तृषा के छेदन के लिए आदेश दो क्योंकि अल्प
पानीय के पानों से उनकी तृषा का क्षय नहीं होग। ।५६।
स एव मदिरासिधः गक्त्यौघं तपंथिष्यति ।
तमादिश महात्मानं समरोत्साहकारिणम् ।
सर्वेते प्रशमनं महाबलविवर्धनम् ।।५७
इत्यक्त दण्डनाथा सा सदुपायेन हर्षिता ।
आजुहाव सुधासिघुमाज्ञां चक्र श्वरी रणे ॥५८
स मदालसरक्ताक्षो हेमाभः खग्विभूषितः ॥५६
प्रणम्य दण्डनाथां ता तदाज्ञापरिपालकः ॥६०
आत्मानं बहुधा कृत्वा तरुणादित्यपाटलम् ।
क्वचित्तापिच्छवच्छयामं क्वचिच्च धवलद्युतिम् ॥६१
कोटिशो मधुराधारा करिहस्तसमाङ्ृतीः ।
ववषं सिधुराजोऽय वायुना बहुलीकृतः ॥६२