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स्वर्गखष्ड ]

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प्रणाम नहीं करना चाहिये; अपितु "यै अमुक हूँ', यह

कहकर पृथ्वीपर ही मस्तक टेकना चाहिये । सत्पुरुषोंके

धर्मका निरन्तर स्मरण करनेवाले शिष्यको उचित है कि

वह बाहरसे आनेपर प्रतिदिन गुरुपत्रीका चरण-स्पर्श एवं

प्रणाम करें। मौसो, मामी, सास, बुआ--ये सब

गुरुपलीके समान हैं। अतः गुरुपत्रीकी भाँति इनका भी

आदर करना चाहिये। अपने बड़े भाइयोंकी सवर्ण

सिरयोका प्रतिदिन चरण-स्पर्श करना उचित है । परदेशसे

आनेपर अपने कुटुम्बी और सम्बन्धियोकी सभी श्रेष्ठ

खियोकि चरणोंमें मस्तक झुकाना चाहिये। बुआ, मौसी

तथा बड़ी बहिनके साथ माताकी ही भाँति बर्ताव करना

चाहिये, इन सबकी अपेक्षा माताका गौरव अधिक है।

जो इस प्रकार सदाचारसे सम्पन्न, अपने मनको

वशमें रखनेवाला और दम्भहीन शिष्य हो, उसे प्रतिदिन

वेद, धर्मशास्रं ओर पुराणोंका अध्ययन कराना चाहिये ।

जब शिष्य सालभरतक गुरुकुलमें निवास कर ले और

उस समयतक गुरु उसे ज्ञानका उपदेश न करे तो वह

अपने पास रहनेवाले दिष्यके सारे पापको हर लेता है।

आचार्यका पुत्र, सेवापरायण, ज्ञान देनेवाला, धर्मात्मा,

पित्र, शक्तिशाली, अन्न देनेवाल्त्र, पानी पिलानेवाला,

साधु पुरुष और अपना हिष्य--ये दस प्रकारके पुरुष

धर्मतः पढ़ानेके योग्य है ।# कृतज्ञ, द्रोह न रखनेवाला,

मेधावी, गुरु बनानेवाला, विश्वासपात्र और प्रिय--ये छः

प्रकारके द्विज विधिपूर्वकं अध्ययन करानेके योग्य है ।

हिष्य आचमन करके संयमशील हो उत्तराधिमुख

बैठकर प्रतिदिन स्वाध्याय करे । गुरुके चरणोमे प्रणाम

करके उनका मुँह जोहता रहे । जब गुरु कटे --' सौम्य !

आओ, पो," तब उनके पास जाकर पाट पढ़े और जब

वे कहें कि "अब पाट बद करना चाहिये", तब पाठ बंद

कर दे। अग्निके पूर्व आदि दिकाओमिं कुडा बिछाकर

उनकी उपासना करे । तीन प्राणायामोसे पवित्र होकर

बरह्मचारी 3>कारके जपका अधिकारी होता है।

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ब्रह्मणो ! विप्रको अध्ययनके आदि और अन्तम भी

विधिपूर्वक प्रणवका जप करना चाहिये । प्रतिदिन पहले

केदको अञ्जलि देकर उसका अध्ययन कराना चाहिये ।

वेद सम्पूर्णं भूतोकि सनातन नेत्र हैं; अतः प्रतिदिन उनका

अध्ययन करे अन्यथा वह ब्राह्मणत्वसे गिर जाता है । जो

नित्यप्रति ऋष्वेदका अध्ययन करता है, वह दूधकी

आहतिसे; जो यजुर्वेदका पाठ करता है, यह दहीसे; जो

सामवेदका अध्ययन करता है, वह घीकी आहतियोंसे

तथा जो अथर्ववेदका पाठ करता है, वह सदा मधुसे

देवताओंको तृप्त करता है। उन देवताओके समीप

नियमपूर्वकं नित्यकर्मका आश्रय ले बनमें जा एकाग्र

चित्त हो गायत्रीका जप करे। प्रतिदिन अधिक-

से-अधिक एक हजार, मध्यम स्थितिपे एक सौ अथवा

कम-से-कम दस बार गायत्री देवीका जप करना चाहिये;

यह जपयज्ञ कहा गया है । भगवानने गायत्री और

वेदोको तराजूपर रखकर तोला था, एक ओर चारों वेद

धे ओर एक ओर केवल गायत्री-मन्त्र | दोनोंका पलड़ा

बराबर रहा ।† द्विजको चाहिये कि वह श्रद्धालु एवं

एकाग्र चित्त होकर पहले ओङ्कारका और फिर

व्याहतियोंका उच्चारण करके गायत्रीका उच्चारण करे । पूर्व

कल्पमें 'भू:', 'भुव:' और “स्व:"--ये तीन सनातन

महाव्याइतियाँ उत्पन्न हुईं, जो सब प्रकारके अमङ्गरका

नादा करनेवाली हैं। ये तीनों व्याहतियां क्रमशः प्रधान,

पुरुष और कालका, विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजीका

तथा सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुणका प्रतीक मानी

गयी हैं। पहले 'ऑ' उसके बाद `ब्रह्म' तथा उसके

पश्चात्‌ गायत्रीमन्त्र--इन सबको मिस््रकर यह महायोग

नामक मन्त्र बनता है, जो सारसे भी सार बताया गया

ह । जो ब्रह्मचारी प्रतिदिन इस वेदमाता गायत्रीका अर्थ

समझकर जप करता है, बह परमगतिको प्राप्त होता है ।

गायत्री वेदोंकी जननी है, गायत्री सम्पूर्ण संसारको पवित्र

करनेवाली है। गायत्रीसे बढ़कर दूसरा कोई जपने योग्य

क# आचार्यपुत्रः शुझ्रूषु्ञनदों धार्मिक: शुचिः । राक्तोऽकरदोऽम्युदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश्च धर्मतः ॥(५३ । ४०)

+ गायत्रीं चै वेदाश तुलयातोल्यत्यभुः । एकतश्चतुगो वेदा

गायत्री च तथैकतः ॥(५३।५२)

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