विधिवत् उपवासं करता है, वह भी मृत्युके पश्चात् पुनः इस
संसारमें नहीं लौटता है।
है खगेश! मृत्युके संनिकट होनेपर कौन-सा दान
करना चाहिये। इस प्रश्नका उत्तर मैंने बता दिया है। मृत्यु
और दाहके बीच मनुष्यके क्या कर्तव्य हैं? इस प्रश्नका
उत्तर अब तुम सुनो।
व्यक्तिको मरा हुआ जानकर उसके पुत्रादिक परिजनॉकों
चाहिये कि वे सभी शवकों शुद्ध जलसे स्नान कराकर
नवीन वस्त्रसे आच्छादित करें। तदनन्तर उसके शरीरमें
चन्दन आदि सुगन्धित पदार्थोंका अनुलेप भी करें। उसके
याद जहाँ मृत्यु हुई है, उसी स्थानपर एको श्राद्ध करना
चाहिये। दाहकर्मके पूर्व शवको दाहके योग्य बनानेके लिये
ऊपर बताये गये कर्म अनिवार्य हैं। इस एकोहिए्ट श्राद्धमें
आसन तथा प्रोक्षण क्रिया होनी चाहिये, किंतु आवाहन,
अर्चन, पात्रालम्भभ और अवगाहन-ये चार क्रियाएँ नहीं
करनी चाहिये। उस समय पिण्डदान अनिवार्य है, अननदानका
संकल्प भी हो सकता है। रेखाकरण, प्रत्यवनेजन नहीं होता
और दिये गये पदार्थके अक्षय्यकौ कामना करनी चाहिये।
अक्षग्योदक दान देना चाहिये। स्वधावाचन, आशीर्वाद और
तिलक-ये तीन नहीं होने चाहिये। उड़दसे परिपूर्ण घट
और लोहेकौ दक्षिणा ब्राह्मणको प्रदान करनेका विधान है।
तत्पश्चात् पिण्ड हिलाना चाहिये। किंतु उस समय आच्छादन,
विसर्जन तथा स्वस्तिवाचन--ये तीन वर्जित हैं। हे खगेश!
मरणस्थान्, द्वार, चत्वर, विश्रामस्थान, काप्ठ-चयन और
अस्थि-संचयन-- ये छः पिण्डदानके स्थान हैं।
प्राणीकी मृत्यु जिस स्थानपर होती है, वहाँपर दिये
जानेवाले पिण्डका नाम “शव ' है, उससे भूमिदेवताकौ तुष्टि
होती है । द्वारपर जो पिण्ड दिया जाता है उसे “ पान्थ" नामक
पिष्ड कहते हैं। इस कर्मको करनेसे वास्तुदेवताको
प्रसनता होती है । चत्वर अर्थात् चौराहेपर ' खेचर" नामक
पिण्डका दान कटनेपर भूतादिक, गगनदारौ देवतागण
प्रसन होते हैं। शवके विश्राम भूमिमें ' भूत- संक"
पिण्डका दानं करनेसे दसो दिशाओंको संतुष्टि प्राप्त होती
है। चितामें 'साधक' नामका और अस्थि-संचयनमें ' प्रेत-
संज्ञक' पिण्ड दिया जाता है।
शवयात्राके समय पुत्रादिक परिजन तिल, कुश, घृत
और ईंधन लेकर ' यमगाथा" अथवा वेदके यमसूक्त 'का
पाठ करते हुए श्मशानभूमिकी ओर जाते है । प्रतिदिन
गौ, अश्व, पुरुष और बैल आदि चराचर प्राणिरयोको अपनी
ओर खचते हुए यम संतुष्ट नहीं होते हैं, जिस प्रकार कि
मद्य पीनेवाला संतुष्ट नहीं होता'।
"ॐ अपेतेति० इस यम॑सूक्तका अथवा 'यमगाथा' का
पाठ शवयात्राके मार्गमें करना चाहिये। सभी बन्धु-
बान्धवॉको दक्षिण दिशा स्थित श्मशानकौ वनभूमिमें
शवको ले जाना चाहिये। हे पक्षिन्! पूर्वोक्त विधिसे मार्गमें
दो श्राद्ध करना चाहिये। उसके बाद श्मशानभूमिमें पहुँचकर
धीरेसे शवको पृथ्वीपर उतारते हुए दक्षिण दिशाकी ओर
सिर स्थापित कर चिताभूमिे पूर्वोक्त विधिके अनुसार श्राद्ध
करना चाहिये। शव-दाहकी क्रियाके लिये पुत्रादिक परिजनोंको
स्थय॑ तृण, काष्ठ, तिल और चृत आदि ले जाना चाहिये।
शूद्रोंके द्वारा श्मशानमें पहुँचायी गयी वस्तु्ओंसे वहाँ किया
गया सम्पूर्ण कर्म निष्फल हो जाता है। वहाँपर सभी कर्म
अपसव्य और दक्षिणाभिमुख होकर करना चाहिये। हे
पश्षिराज! शास्त्रसम्मत विधिके अनुसार एक वेदीका निर्माण
करना चाहिये। तदनन्तर प्रेतवस्त्र अर्धात् कफनकों दो
भागोंमें फाड़ कर उसके आधे भागसे उस यको ढक दे
और दूसरे भागको श्मशानमें निवास करनेवाले प्राणीके लिये
भूमिपर ही छोड़ दे। उसके बाद पूर्वोक्त विधिके अनुसार
मरे हुए व्यक्तिके हाथमें पिण्डदान करे। तदनन्तर शवके
सम्पूर्ण शरीरमें घृतका लेप करना चाहिये।
हे खगेश! प्राणीकी मृत्यु और दाह- संस्कारके बोच
पिष्डदानकौ जो विधि है, अब उसे सुनो।
पहले बताये गये मृतस्थान, द्वार, चौराहे, विश्रामस्थान
तथा काप्टसंचयनस्थानमें प्रदत्त पाँच पिण्डॉका दान करनेसे
ज्ञवमें की आहुति (अग्निदाह)-कौ योग्यता आ जाती है,
अथवा किसी प्रकारके प्रतिबन्धके कारण उपर्युक्त पिण्ड
नहीं दिये गये तो शव राक्षसोकि भक्षण योग्य हो जाता है ।
अतः स्वच्छ भूमिपर बनी हुई वेदौको भलीभाँति मार्जन,
३-यहाँ एकोदिशका तात्पर्थ मरणस्थानपर फथाचिधान एक पिण्डके दानसे है ।
२-अहरहनौंयमानो गमश्च पुरुष वृषम् । वैवस्वतो न तृप्येत सुरया त्विव दुमेति:॥ (४।५३) इसका नाम वमगाषा है ।
३-यजु०अ० ३५ ' यमसूक्त' कहलाता है ।