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आई)

* सप्तम स्कन्ध +

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सुयज्ञकी अन्त्षटि-क्रिया कौ ॥ ५९ ॥ इसलिये तुमलोग

भी अपने लिये या किसी दूसरेके लिये शोक मत करो ।

भेद-बुद्धिका ओर कोई कारण नहीं है ॥ ६० ॥

नारदजीने कहा-- युधिष्ठिर ! अपनी पुत्रवधुके

इस संसारमें कौन आत्मा है और कौन अपनेसे भिन्न ? साथ दितिने हिरण्यकशिपुकी यह बात सुनकर उसी

क्या अपना है और क्या पराया ? प्राणियोंको अज्ञानके क्षण पुत्रशोकका त्याग कर दिया और अपना चित्त

कारण ही यह अपने -परयेका दुराग्रह हो रहा है, इस परमतत्वस्वरूप परमात्मामें लगा दिया ॥ ६१॥

कै के के के मै

तीसरा अध्याय

हिरण्यकशिपुकी तपस्या और वरघ्राप्ति

नारदजीने कहा -- युधिष्ठिर ! अब हिरण्यकशिपुने

यह विचार किया कि 'में अजेय, अजर, अमर और

संसारका एकछत्र सम्राट्‌ बन जाऊँ, जिससे कोई मेरे

सामने खड़ातक न हो सके ॥ ६॥ इसके लिये बह

मन्दराचलकी एक घाटीमें जाकर अत्यन्त टारुण तपस्या

करने लगा । वहाँ हाथ ऊपर उठाकर आकाशकी ओर

देखता हुआ वह पैरके अगूठेके बल पृथ्वीपर खड़ा हो

गया ॥ २॥ उसकी जरा ऐसी चमक रही थीं, जैसे

प्रलयकालके सूर्यकी किरणें। जब वह इस प्रकार

तपस्यामें संलग्न हो गया, तब देवतालोग अपने-अपने

स्थानों और पदोपर पुनः प्रतिष्ठित हो गये ॥ ३ ॥ बहुत

दिनोंतक तपस्या करनेके बाद उसकी तपस्याकी आग

घुएके साथ सिरसे निकलने लगी। वह चारों ओर

फैल गयी और ऊपर-नौचे तथा अगल-बगलके लोकोंको

जलाने लगी॥४॥ उसकी लपटसे नदी और समुद्र

खौलने लगे। द्रप और पर्वतकि सहित पृथ्वी डगमगाने

लगी। ग्रह और तारे टूट-टूटकर गिरने लगे तथा दसों

दिशाओं मानो आग लग गयी ॥ ५॥

हिरण्यकशिपुकी उस तपोमयी आगकी लपटोंसे

स्वर्गके देवता भी जलने लगे। वे घबराकर स्वर्गसे

ब्रह्मलोके गये और ब्रह्माजीसे प्रार्था करने लगे--हे

देवताओंके भी आराध्यदेव जगत्पति ब्रह्माजी ! हमलोग

हिरण्यकशिपुके तपकी ज्वालासे जल रहे हैं। अब हम

स्वर्गमें नहीं रह सकते। है अनन्ते ! हे सर्वाध्यक्ष !

यदि आप उचित समझें तो अपनी सेवा करनेवाली

जनताका नाश होनेके पहले ही यह ज्वाला शान्त कर

दीजिये ॥ ६-७॥ भगवन्‌ ! आप सब कुछ जानते ही हैं,

फिर भी हम अपनी ओरसे आपसे यह निवेदन कर देते

हैं कि वह किस अभिप्रायसे यह घोर तपस्या कर रहा है।

सुनिये, उसका विचार है कि जैसे ब्रह्माजी अपनी तपस्या

और योगके प्रभावसे इस चराचर्‌ जगतृकी सृष्टि करके

सब लोकोंसे ऊपर सत्यलोकमें विराजते हैं, वैसे ही मै भी

अपनी उम्र तपस्वा और योगके प्रभावसे वही पद और

स्थान प्राप्त कर लूँगा। क्योंकि समय असीम है और

आत्मा नित्य है। एक जन्ममें नहीं, अनेक जन्मो; एक

युगमें न सही, अनेक युगोंमें ॥ ८-१० ॥ अपनी तपस्याकी

शक्तिसे मैं पाप-पुण्यादिके नियरमोको पलटकर इस

संसारमें ऐसा उलट -फेर कर दूँगा, जैसा पहले कभी नहीं

था। वैष्णवादि पटो तो रक्खा हो क्या है। क्योकि

कल्पके अन्तमें उन्हें भी कालके गालमें चला जाना पड़ता

है'क॑॥ ११ ॥ हमने सुना है कि ऐसा हठ करके ही वह

घोर तपस्यामे जुटा हुआ है। आप तीनों लोकोंके स्वामी

हैं। अब आप जो उचित समझें, वहीं करें॥ १२॥

ब्रह्मजी ! आपका यह सर्वश्रेष्ठ परमेष्ठि-पद ब्राह्मण एवं

गौओंकी वृद्धि, कल्याण, विभूति, कुशल और विजयके

लिये है । (यदि यह हिरण्यकशिपुके हाथमें चला गया, तो

सज्जनोंपर सड्कूटॉका पहाड़ टूट पड़ेगा) ॥ १३ ॥

युधिष्ठिर ! जब देवताओनि भगवान्‌ क्रह्माजीसे इस

कै कपि वैष्णवपद (वैकृण्टादि रित्यधाम) अविनाशी है, परन्तु हिरष्यकशिपु अपनो आगो बुद्धिके कारण उनको कल्पके अन्तम नष्ट होनेयाला

हो मानता था। तामसी बुद्धिम सव बातें विपरोत हो दीखा करती दै ।