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उत्तरपर्व ]

* महर्षि अगस्थकी कथा और उनके अर्ष्य-दानकी विधि *

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कठोर तप करने लगे । वे बहुत कालतक तपस्या करते रहे,

उसी समय बड़े ही दुराचारी और ब्राह्मणोंद्वारा किये जा रहे

यज्ञोंका विध्यैस करनेवाले दो दैत्य जिनका नाम इल्वल और

बातापि था, कहाँ उपस्थित हुए। ये दोनों बड़े ही मायावी थे ।

इन दोनोंका प्रतिदिनका कार्य यह था कि एक भाई मेष बनकर

विविध प्रकारके भोजनॉका रूप धारण कर लेता और दूसरा

भाई श्राद्धमे भोजन करने-हेतु ब्राह्मणोंको निमन्त्रण देकर

बुत््रता और भोजन कराता । भोजन कर लेनेके तुरंत बाद ही

इल्वल अपने भाईका नाम लेकर पुकारता । दैत्यकी पुकार

सुनते ही उसका दूसरा भाई ऋहमणोकि पेटको चीरता हुआ

बाहर निकल जाता था। इस प्रकार उन दोनों दैत्योंने अनेक

ब्राह्मणों तथा मुनियोंक्रो मार डाला ।

एक दिनकी बात है, इल्यरने भूगुबंशमें उत्पन्न

ऋह्मणोके साथ अगस्त्यमुनिकों भोजनके लिये आमन्त्रित

किया। भोजनके समय अगस्यमुनिने इल्चलके द्वारा बनाया

गया भोजन सारा-को-सारा खा डाला, पर मुनि निर्विकार

होकर शुद्ध हो गये थे। इल्वलने पूर्वरीतिसे अपने भाई

वातापिको पुकारकर कहा--' भाई ! अब क्यो विलम्ब कर रहे

हो, मुनिके इरीरको चीरकर बाहर आ जाओ ।' इसपर

अगस्त्यमुनिने कडा--' ॐ दुष्ट दैत्य ! तुम्हारा भाई वातापि तो

उदरमें ही भस्म होकर समाप्त हो गया, अब वह बाहर कहाँसे

आयेगा। यह सुनकर इल्वल बहुत ही क्रुद्ध हो उठा,

परंतु अगस्त्यमुनिने उसको भी अपनी क्रुद्ध दृष्टिसे जल्मकर

भस्म कर डाल्म्। उन दोनों दैत्योकि मारे जानेपर दोष दैत्य धौ

मुनिके वैरको स्मरण करते हुए भयभीत होकर समुद्रमें जाकर

छिप गये । वे रधक समय समुद्रसे बाहर निकलकर मुनियोंका

भक्षण करते, यज्ञपात्र फोड़ डालते और पुनः समुद्रमें जाकर

छिप जाते। दैत्योकि इस प्रकारके उत्फतको देखकर ब्रह्मा,

विष्णु, दित, इन्द्र॒ आदि सभी देवता आपसमें विचारकर महर्षि

अगस्त्यजीके पास आकर बोले--'ब्रह्मपें! आप समुद्रके

जलको सोख लीजिये ।' यह सुनकर अगस्त्वजीने अपनेमें

आप्रेयी धारणाका अवधान कर समुद्रके जलका पान कर

लिया। समुद्रके सूख जानेपर देवताओंने उन सभी दैत्योंका

संहार कर डाला।

इस प्रकार महर्षि अगस्त्यने इस संसार निष्कण्टक कर

दिया । उसके बाद गङ्गाजोके जलसे समुद्र पुनः भर गया | तब

देवता और दैत्योंने मिलकर मन्दराचल पर्वतकों मथानी तथा

नागराज वासुकिको रस्सी बनाकर समुद्रका मन्थन किया । उस

हाथी आदि उत्तम-उत्तम रत्न निकले । समुद्रसे ही अति भर्यकर

कालकूट विष भी निकस्म्न, जिसके गन्धमात्रसे ही देखता और

दैत्य सभी मूर्च्छित होने लगे इस कालकूट विषका कुछ भाग

भगवान्‌ शौकरने पान कर लिया। जिससे वे नीलकण्ठ

कहलाये, तब ब्रह्माजीने कहा कि 'भगवान्‌ शैकरके अतिरिक्त

संसारमें ऐसा किसीमें सामर्थ्य नहीं है, जो इस शेष विषका पान

करे, अतः देवगणो ! आप सब दक्षिण दिल्ञामें लंकाके समीप

निवास करनेवाले अगस्त्थमुनिके पास जायै, वे हमल्ओेगोंके

शरणदाता हैं। ब्रह्माजकी आज्ञा पाकर सभी देवता

अगस्त्यमुनिके पास गये। मुनिश्रेष्ठ अगस्त्थने सबको भयभीत

पाकर उन्हें यह आश्वासन दिया कि मैं उस विषकों अपने

तपोबलके प्रभावसे हिमालय पर्वतमे प्रविष्ट कर दूँगा। तब

महर्षि अगस्त्वजीके तपोबलके प्रभावसे वही विष हिमालयके

शिखरो, निकुंजों तथा वृक्षोमें बिखर गया और शेष बचे हुए,

विषको धतूर, अर्क आदि वुक्षोमे उन्होंने बाँट दिया। उसी

हिमालय पर्वतके विघसे युक्त वायुके प्रभावसे प्राणियोंमें अनेक

कारके ग्रेग उत्पन्न होते हैं, जिससे प्राणियोको कष्ट सहन करना

पड़ता है। उस विषयुक्त वायुका प्रभाव वृकी संक्रान्तिसे लेकर

सिंह-संक्रान्तितक बना रहता है । बादमें उसका वेग झान्त हो

जाता है। इस प्रकार कालकूट विषके विनाशकारी प्रभावसे

अगस्त्यमुनिने समस्त प्राणियोंकी रक्षा की ।

पूर्वकालमें प्रजाकी बहुत वृद्धि हुई उस समय ब्रह्माजीने

अपने शरौरसे मृत्युको उत्पन्न किया और मृत्युने प्रजाका

भयंकर विनादा किया। एक दिन यह मृत्यु अगस्त्यमुनिके

समीप भी आयी। अगस्त्यजीने क्रोधभरी दृष्टिसे मृत्युको

तत्काल भस्म कर दिया। पुनः ब्रह्माजीकों दूसरी व्याधिरूप

मृत्युकी उत्पत्ति करनी पड़ी।

दण्डकारण्यमें शेत नामक एक राजा रहता था, स्वर्ग

जानेपर भी यह प्रतिदिन कुधाके कारण अपने मांसको ही

खाकर कष्ट भोग रहा था। एक दिन दुःखी हो राजान

अगस्त्यमुनिसे कहा--'महाराज ! सभी वस्तुओंका दान तो

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