३९० ] [ ब्रह्माण्ड पुराण
उस युद्ध के प्रवृत्त होने पर दुष्ट दानव विशुक्र ने जब यह देखा था
कि शक्तियों की सेना बढ़ रही है और अपनी क्षीण हो रही है तो क्रोध में
भरकर उसने एक बड़ा धनुष खींचा था ओर उस समस्त शक्तियों की सेना
में तुषास्त्र छोड दिया था ।४३-४४। उसने जो दावानल की ज्वाला के समान
दीप्त था उस बड़ी सेना को मथ दिया था। तीसरे यद्ध के दिन में एक
प्रहर मात्र रवि के गत होने पर विशुक्र के द्वारा छोड़े हुए तृषास्त्र से
शक्तियाँ व्याकुल हो उठी थीं ।४५। उन तालु के मूल का शोषण कर रहा
था। कानों के छिद्र भी रूक्ष हों रहे थे और अज़्लों में दुबंलता हो रही थी
तथा आयुधो को छोड़कर देहों को भूमि पर गिरा रहा था ।४६-४७। युद्ध में
अनुम करने वाले तथा समस्त उत्साह के विरोधी उस तथ के द्वारा क्व-
चित शक्तियों की सेना को देखकर वह मन्त्रिणी पोत्रिणी के साथ बहुत ही
चिन्तित हो गयी थीं।४८। अतीव अहित विशंका वाली उस दण्डनाथा से
बोली रथ में स्थित और रथगता होकर उसके प्रतिकार कर्म के लिए कहा
था है सखि! पोत्रिणि ! यह दुष्ट का तृषास्त्र आ गया है। इसका हमारी
सेना पर बहुत ही बुरा प्रभाव हो गया है ।४६।
शिथिलीकुरुते सेन्यमस्माकं हा विधेः क्रम: ।
विशुष्कतालुमूलानां विभ्रष्टायुधते जसाम् ।
शक्तीनां मंडलेनात्र समरे समुपेक्षितम् ॥५०
न कापि करते युद्धं न धारयति चायुधम् ।
विशुष्कतालुमूलत्वादक्तुमप्यालि न क्षमाः ।५१
ईहशीन्नो गति श्रुत्वा कि वक्ष्यति महेश्वरी ।
कृता चापक्रतिदत्यैरुपायः प्रविचित्यताम् ॥५२
सवत्र ढयष्टसाहस्राक्षौरिण्यामत्र पोत्रिणि ।
एकापि णक्तिनेँवारित या तर्षेण न पीडिता ॥५३
अत्रैवावसरे दृष्ट्वा मृक्तशस्त्रा पताकिनीम् ।
रंध्रप्रहारिणो हंत बाणेनिष्नंति दानवाः ।५४
अत्रोपायस्त्वया कार्यो मया च समरोद्यमे ।
ह्वदीयरथपरवेस्थो योऽस्ति णीत महाणंवः ॥ ५५