* संक्षिप्त श्रीवराहपुराण «
[ अध्याय २९५
गोकर्णे श्वर तथा जलेश्वरके माहात्म्यका वर्णन
ब्रह्माजी कहते हैं--इसके बाद सम्पूर्ण
देवताओंके साथ परामर्शकर इन्द्रने भगवान् शंकरके
पास जानेका विचार किया। सभी देवता उस ऊँचे
शिखरसे उठे और नन्दीके साथ आकाशमार्गसे
उन्होंने प्रस्थान कर दिया। भगवान् रुद्रके अन्वेषण
करनेमें तत्पर होकर अखिल देवताओंने स्वर्गलोक,
ब्रह्मतोक और नागलोक सर्वत्र छान डाला तथा वे
उन्हें ढूँढ़ते-दूँढ़ते थक गये, पर उनका पता न
चला। अब उनके मनमें निराशा छा गयी। रुद्रका
पता न देख उन्होंने चाग समुद्रोंपर्यन्त सात ट्वीपोंवाली
पृथ्वीपर भी दूँदढना आरम्भ किया। फिर वे वनोंसे
युक्त महान् पर्वतोंकी कन्दराओं और उनके ऊँचे
शिखरोंपर भी गये तथा उन्हें गहन निकुझों और
क्रीडा-स्थलोंमें भी सब ओर खोजते रहे। उनके
इस ढूँढ़नेके प्रयाससे इस पृथ्वीके तृणोंके भी
डुकड़े-टुकड़े हो गये; पर इतना प्रयत्न करनेपर भी
भगवान् शंकरको प्राप्त करनेमें देवताओंको सफलता
न मिली और भगवान् शंकरका दर्शन उन्हें न मिल
सका। अतः देवतालोग अत्यन्त उदास हो गये।
आगेके कर्तव्यके सम्बन्धमें परस्पर विचार-
विमर्श और वार्तालाप करनेके पश्चात् वे सभी
देवता मेरी (ब्रह्माकी) शरणमें आये। तब मैंने
मनको सावधान करके संसारको कल्याण प्रदान
करनेवाले उन शंकरका समाहित मनसे ध्यान
किया। उनके वेश और अलंकारोंके ध्यान
करनेसे मुझे एक उपाय सूझ गया। फिर मैंने
देवताओंसे कहा--'हमलोगोंने निरन्तर अन्वेषण
करते हुए सारी त्रिलोकी छान डाली है, किंतु
भूमण्डलपर ' श्लेष्मातक 'बन नामक स्थानपर नहीं
गये। अतएव प्रधान देवताओ! हम सभी लोग
यहाँसे उस देशमें चलें।' इस प्रकार कहकर उन
सम्पूर्ण देवताओंके साथ हमलोग उस दिशाकी
ओर प्रस्थित हो गये और शीघ्रगामी विमानोंपर
चढ़कर तत्क्षण 'श्लेष्मातक'बनमें* पहुँच गये।
वह पुण्यमय स्थान सिद्ध और चारणोंसे सेवित
था। वहाँ पर्वतोंकी बहुत-सी कन्दराएँ तथा
अनेक प्रकारके पवित्र एवं परम रमणीय स्थान
ध्यान करनेके उपयुक्त थे। उनमें सभी गुर्णोको
अधिकता थौ । अनेक सुन्दर आश्रम, उद्यान और
स्वच्छ जलवाली नदियाँ शोभा बढ़ा रही थीं। उस
वनमें श्रेष्ठ सिंह, भसे, नीलगाय, भालू-बंदर,
हाथी और मृगोंके झुंड शब्द कर रहे थे। सिद्ध
आदि पुरुषोंसे वह स्थान भरा था।
देवताओंने इन्द्रको आगे करके उसमें प्रवेश
किया। वहाँ वे रथ आदि सवारियोंको छोड़कर
पैदल ही गये। फिर हम सभी कन्दराओं,
झाड़ियों एवं वृक्षोंसे भरे हुए सघन वनोंमें सम्पूर्ण
देवताओंके स्वरूप भगवान् रुद्रको खोजनेमें संलग्न
हो गये। आगे जानेपर हमें एक अत्यन्त सुन्दर वन
मिला, जो सभी वनोंका अलंकार था। वहाँ
बहुत-सी पर्वतीय नदियाँ और फूले हुए अनेक
वृक्ष उसकी शोभा बढ़ा रहे थे। सभी देवताओं ने
उसमें प्रवेश किया। नदियोंके तटपर कुन्द तथा
चनद्रमाके समान स्वच्छ वर्णवाले हंस विचर रहे
थे। फूलोंसे अच्छी गंध निकल रही थी, जिसके
कारण वह वन सुवासितं हो रहा था। वहाँ
* यह * स्लेष्यातक'- यन उत्तर -गोकर्ण॑का ही मान्तः है, जो पशुपतिनाथ (नेष्कल ) - से केवल दौ मौलकी दूरीपर है - 5८५५।०३।४४
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