Home
← पिछला
अगला →

३८४

* पुराण परमं पुण्य भविष्यं सर्वसौख्वदम्‌ +

[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाङ्क

भद्गाके बारह नाम हैं--(१) धन्या, (२) दधिमुखी,

(३) भद्रा, (४) महामारी, (५) खरानना, (६) कालरात्रि,

(७) महारुद्रा, (८) विष्टि, (९) कुलपुत्रिका, (१०)

भैरवी, (११) महाकाली तथा (१२) असुरक्षयकरी।

इन बारह नामोंका प्रातःकाल उठकर जो स्मरण करता है,

उसे किसी भी व्याधिका भय नहीं होता। रोगी रोगसे मुक्त हो

जाता है और सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं। उसके का्ोमि

कोई विघ्न नहीं होता * युद्धमें तथा राजकुलमें वह विजय प्राप्त

करता है' जो विधिपूर्वक नित्य विष्टिका पूजन करता है,

निःसंदेह उसके सभौ कार्य सिद्ध हो जाते हैं। अब मैं भद्रके

ब्रतकी विधि बता रहा हूँ--

राजन्‌ ! जिस दिन भद्रा हो उस दिन उपवास करना

चाहिये । यदि रत्रिके समय भद्रा हो तो दो दिनतक एकभुक्त

व्रत करना चाहिये । एक प्रहरके बाद भद्रा हो तो तीन प्रहरतक

उपवास करना चाहिये अथवा एकभुक्तं रहना चाहिये । खी

अःथवा पुरुष ब्रतके दिन सुगन्ध आमलक लगाकर सर्वौषधि -

युक्त जलसे सान करे अधवा नदी आदिपर जाकर विधिपूर्वक

खान करे । देवता एवं पितरोंका तर्पण तथा पूजन कर कुडाकी

भद्गाकी मूर्ति बनाये और गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदिसे

उसकी पूजा करे । भद्राके बारह नामोंसे एक सौ आठ बार

हवन करनेके याद तिल और पायसं ब्राह्यणो भोजन कराकर

स्वये भी मौन होकर तिलमिश्रित कुशरान्नका भोजन करना

चाहिये । फिर पूजनके अन्तमे इस प्रकार प्रार्थना करनी

चाहिये--

छायासूर्यसुते देवि. विष्टिरिप्टार्थदायिनि ।

पूजितासि यथाझकत्या भद्दे भद्ग॒प्रदा भव ॥

(उत्तरपर्व ११७॥ ३९)

इस प्रकार सत्रह भद्रा्रत कर अत्तमें उद्यापन करे।

स्मेहेकी पीठपर भद्रा मूर्तिकों स्थापित कर कात्म वस्त्र

पहनाकर गन्ध, पुष्प आदिसे पूजन कर प्रार्थशा करे। लोहा,

तैल, तिल, बछड़ासहित काल गाय, काल्म कम्बल और

यथादाक्ति दक्षिणाके साथ यह मूर्ति ब्राह्मणक दान कर देना

चाहिये और विसर्जन करना चाहिये। इस विधिसे जो भी

व्यक्ति भदरात्रत और ब्रतका उद्यापन करता है, उसके किसी भी

कार्यमें विघ्र नहीं पड़ता। भद्राव्रत करनेवाले व्यक्तिको प्रेत,

पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा ग्रह आदि कष्ट नहीं देते।

उसका इश्टसे वियोग नहीं होता और अन्तमे उसे सूर्यलोककी

प्राप्ति होती हैर । (अध्याय ११७)

---

महर्षि अगस्त्यकी कथा और उनके अर्ध्य -दानकी विधि

राजा युधिष्ठिरने पृष्ठा -- भगवन्‌ ! अब आप सभी

पापको दूर करनेबाले अगस्त्यमुनिके चरित्र, अर्घ्यदानकी विधि

ओर अगस्त्योदय-कालका वर्णन कीजिये ।

भगवान्‌ श्रीकृष्णने कहा -- महाराज ! एक बार

देवश्रष्ट पित्र और वरुण दोनों मन्दराचलपर कठिन तपस्या कर

रहे थे। उनकी तपस्थामें बाधा डालनेक लिये इनदर उर्वत्ञी

अप्सराको भेजा । उसे देखकर दोनों क्षुब्ध हो उदे । अपने

मनके विकारकों जानकर उन्होंने अपना तेज एक कुम्भमें

स्थापित कर दिया। राजा निमिके शापसे उसी कुम्भसे प्रथम

महर्षि वसिष्ठका अनन्तर दिव्य तपोधन महात्मा अगस्त्थका

प्रादुर्भाव हुआ।

अगस्त्यमुनिका विवाह त्त्रपामद्रासे हुआ । अनन्तर

विप्रोंसे घिरे हुए अगस्त्यमुनि अपनी पत्नीके साथ रहकर

मलयपर्वतके एक प्रेक्मे वैखानस-विधिके अनुसार अत्यन्त

इदि प्राणहरा ज्ञेया नाभ्य तु कलहाकहा। कटयामर्थपरिभदते विषटिपुच्छे धरो जयः ॥

९-चल्दा दथिमुखी भद्रा मद्यपो खरानना । कालराजि्सहारदा विशश्च

चैरयौी च महाकाली असुणनौ शषयकरी। द्ादरौय

(उत्तरपर्ष ११७। २३--२५)

तु नामानि प्रातहत्थाध यः पठेत्‌ ॥

न॒ च च्याधिर्भचेत्‌ रस्य रोगौ सोगातुप्रमुच्यते।प्रहाः सर्वेऽनुकूल््ः स्पु्नं॑ च॒ विष्नादि जायते॥

रणे रजे घूते सर्व विजयी भवेत्‌ ॥

(उत्तरपर्क ११७॥ २७--३०)

२- भद्रके किषयमें ज्योतिष -प्रग्थोमें बिस्काससे वर्णन मिलता है, विशेषकर मुहूर्त चिन्तामणि पीयूषधारा व्यास्यामें । पद्माड्रेंकी यह व्यापक

वस्तु है। यह पयः प्रत्येक ट्वितीया, तृतीय, सत्तमौ, अहमी और द्वादशी-त्रयोदशीकों लगी रहती है। इसका पूर समय प्रायः २४ घंटेका होता है।

इस अध्यायमें उसके रहस्यक्ों ठीकसे समझानेका प्रयत्न किया गया है और उसकी झाक्तिका भौ उपाय कतया है।

← पिछला
अगला →