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तत्र स्नात्वा तोर्थवरे गोसहस्रफलं लपेत्॥ १०॥
महाकालमिति खयातं तीर्थ लोकेषु विश्ुतम्।
गत्वा प्राणान् परित्यज्य गाणपत्वमवाणुयात्॥ ११॥
गुह्यदगुहतप॑ तीर्थ नकुलीश्वरमुत्तमम्।
तत्र सन्निहित: श्रीपान् भगवाज्नकुलीक्षर:॥ १२॥
जपदग्नि के पुत्र अबिलषटकर्मा परशुराम का भी एक शुभ
तीर्थ है। उस तोर्थ-श्रेष्ठ ये स्नान करने से हजार गोदान का
फल प्राप्त होता है। एक अन्य महाकाल नाम से विख्यात
तौर तोनों लोकों में प्रसिद्ध है। वहाँ जाकर प्राणो का
परित्याग करने से शिवगणों का अधिपतित्व पद प्राप्त होता
है। (वहां) श्रेष्ठ नकुलीश्वर तीर्थ गृह्यस्यानों में भी अत्यन्त
गुह्य है। वहाँ श्रीमान् भगवान् नकुलीश्वर विराजमान रहते हैं।
हिमवच्छिखरे रप्ये गंगाद्वारे सुशोभते।
देव्या सह महादेवो नित्य॑ शिष्यैश्च सम्भृत:॥ १३॥
तत्र स्तात्या महादेवं पूजयिता वृषष्वजम्।
पृतस्तज््ानमाणुयात्॥ १४॥
हिमालय के रमणीय शिखर पर स्थित अत्यन्त सुन्दर
गद्गाद्वार नामक तीर्थ है, वहां शिष्यों से घिरे हुए महादेव
देवी के साथ नित्य निवास करते हैं। वहाँ स्नानकर
वृषभध्वज महादेव को पूजा करने से मनुष्य सभी पापों से
मुक्त हो जाता है और मृत्यु के बाद परम ज्ञान प्राप्त करता है।
अन्वच देवदेवस्य स्थानं पुष्यतपं शुधम्।
भमेश्वरमिति एयातं गत्वा मुञ्चति परातकम्॥ ९५॥
तथान्वक्षण्डवेमायाः सम्भेदः पापनाशनः।
तत्र स्नात्वा च पौत्वा च पच्यते ज़ह्यहत्यया॥ १६॥
देवाधिदेव (शंकर) का एक दूसरा शुभ तथा पवित्रतम
स्थान है जो भीमेश्वर इस नाम से विख्यात है। वहाँ जाने से
व्यक्ति पाप से मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार चण्डवेगा नदी
का संगम भी है, जो पापों का नाज्ञ करने वाला है। वहाँ
स्नान करने तथा जल का पान करने से मनुष्य ब्रह्महत्या से
मुक्त हो जाता है।
सर्वेषामपि चैतेषां तीर्थानां परपा पुरी॥
जाम्ता वाराणसी दिव्या कोटिकोट्ययुताधिका। १७॥
तस्याः पुरस्तान्माहात्म्यं भाषितं वो मया त्विह।
नान्यत्र लभते पुक्ति वोगेनाप्येकजन्मना॥ १८॥
इन उपर्युक्त सभौ तोर्थों यें श्रेष्ठ वाराणसी नाम की नगरी
अति दिव्य होने से कोटिणुना अधिक तीथं से युक्त है। इस
कूर्पमहापुराणम्
कारण पूर्व में मैने आप लोगों से उसके माहात्म्य का वर्णन
भौ किया था। क्योकि अन्य तोर्थ में योग के ट्रारा एक जन्म
में मुक्ति नहीं मिलती है।
एते प्राघान्यत: प्रोक्ता देशाः पापहरा वृणा्।
गत्वा संक्षालयेत्पापं जन्मासरशतैरपि॥। १९॥
यः स्वधर्मान् परित्यज्य तीर्थसेवां करोति हि।
न तस्य फलते तीर्थमिह लोके पत्र च॥ २०॥
उपर्युक्त जो मुख्य-मुख्य तीर्थ बताये गये हैं वे सभी
मनुष्यों के पापों को हरने वाले हैँ। वहाँ जाकर सैकड़ों जन्मों
मे किये पापों को धो देना चाहिये। परन्तु (यह अच्छी प्रकार
जान लें कि) जो अपने धर्मों का परित्याग कर तौर्थों का
सेवन करता है, उसके लिये कोई भी तीर्थ न तो इस लोक
ये फलदायी होता है, न परलोक में।
प्रायश्चित्ती च विधुरस्ता यायावरो गृही।
प्रकुर्यात्तीर्चसंसेवां यथ्चान्यस्तादृशो जनः॥ २९॥
सहामिर्वा सपलोको गच्छेततीर्धानि यलतः।
सर्वपापविनिर्भुक्तो यथोक्तां गतिमाणुयात्॥ २२॥
ऋणानि ब्रीण्यपाकर्यतकुर्वन्वा तोर्धयेवनम्।
विधाय वृत्ति पुत्राणां भार्या तेषु विधाय च॥ २३॥
जो प्रायश्चित्तों हो, पत्नी से रहित विधुर हो तथा जिनके
द्वार पाप हो गया है ऐसे गृहस्थ एवं इषौ प्रकार के जो
अन्य लोग हैं, उन्हें (पश्चात्तापपूर्वक यथाशास्त्र) तीर्थो का
सेवन करना चाहिये। और भौ जो अमित्री हो, उसे अग्नि
को साथ लेकर तथा पत्नी के साध सावधानीपूर्वक तीर्थो में
ध्रपण करना चाहिये। ऐसा करने से मनुष्य समस्त पापो से
मुक्त होकर उत्तम गति को प्राप्त करता है। अथवा मनुष्य को
अपने तीनों ऋणों (देव, पितृ, मनुष्य) से मुक्त होने के बाद
पुत्रों के लिये जीविका-सम्बन्धी वृत्ति कौ व्यवस्था कर और
उन्हों अपनी पत्नी को सौंपकर तीर्थ का सेवन करना चाहिये।
प्रायक्षित्तप्रसड्रेल तीरथमाहात्यमीरितम्।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ २४॥
इस प्रकार यहाँ प्रायश्चित्त के प्रसंगवश तीर्थो का माहात्म्य
कहा गया है। इसका जो पाठ करता है अथवा सुनता है, वह
सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
इति श्रीकूर्मपुराणे उत्तराद्र तीर्थपाहात्प्य॑ बाम
चतुझत्वार्रिशोःश्याव:॥ ४४॥