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३६४ |] [ मत्स्यपुराण

युक्त है ।१६। बर्फ के ही छत्र से युक्त इसकी महान शिखरे विराजमान

रहा करती है ओर सैकड़ों ही प्रषातों का निर्शरण इसमें होता रहता

है । शब्द के द्वारां ही प्राप्त करने के यौंग्य जल से यह अत्यन्त विषम

है और इसकी जो कन्दरायें हैं ये भी सर्वदा हिम (बर्फ) से संरुद्ध रहा

करती हैं ।२०। अत्यन्त सुन्दर नितम्बों की भूमि वाले उस गिरिराज

को देखकर ही वह महानुभाव भद्रनाथ वहीं पर बहुत ही. आनन्द के

साथ भ्रमण किया करते थे और उस सम्रयमें कोई समेत स्थान उन्होंने

प्राप्त कर लिया था ।२१। ।

५२-कलास वर्णन

तस्याश्रमस्योत्तरस्त्रिपुरारिनिषेवितः ।

नानभ्रत्नमयैः श्य ङ्कः कल्पद्र.मसमन्वितेः । १

` मध्ये हिमवतः पृष्ठे कंलासो नाम पर्वतः ।

तस्मिन्निवसति श्रीमान्‌ कुवेरः सह ग्यक ।२

अप्सरोऽनुगतो राजा मोदते ह्यलकाधिपः ।

कौलासपादसम्भूतं रम्यं शीतजलं शुभस ।३

मन्दारपुष्परजसा परितं देवसन्निभम्‌ । `

तस्मात्‌ प्रवहते दिव्या नदी मन्दाकिनी शुभा ।४

"दिव्यञ्च नन्दनं तत्र तस्यास्तीरे महद्वनम्‌ ।

प्रागुत्तरेण कौलासादिव्यं सौगन्धिकगिरिम्‌ ।५

“सर्वधातुमय दिव्यं सुवेलं पववंतं प्रति ।

चन्द्रप्रभो नाम गिरिः सशुश्रो स्ल्नसन्निभः ।६

तत्समीपे सरो दिव्यमच्छो्दं नाम कलिश्च. तम्‌ ।

तस्मात्‌ प्रभवते दिव्या नहीं हाच्छोदिका शुभा-।७ ~

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