* पुराणं परम पुण्यं भविष्यं सर्वसौख्यदम् ५
[ संक्षिप्त भविष्यपुराणाद्क
ब्राहक्रणकों पूजा करके ठसका दान कर दे। स्वर्णक अभावे
चाँदी, काश्च, आटे आदिका रथ बनाकर आचार्यकों दान करे ।
महादेव ! यह साघ-सप्तमी बहुत उत्तम तिथि है, पापॉंका हरण
करनेवाली इस रथसाप्रमीको भगवान् सूर्यके निमित्त किया गया
स्नान, दान, होम, पूजा आदि सत्कर्म हजार गुना फलदायक
हो जाता है। जो कोई भी इस ब्रतको करता है, वह अपने
अभोष्ट मनोरथको प्राप्त करता है। इस सप्तमीके माहात्म्यका
भक्तिपूर्वकं श्रवण करनेवात्म्र व्यक्ति ब्रह्महत्याके पापसे मुक्ति
पा जाता है।
सुमन्तु मुनिने कहा--एजन् ! इस प्रकार रथयात्राका
विधान बताकर ब्रह्मजी अपने लेकको चले गये और
रुद्रदेवता भो अपने धाम चले गये। अब आप और क्या
सुनना चाहते हैं, यह बतायें।
राजा दातानीकने कहा--हे महाराज ! सूर्यदेवके
प्रभावका मैं कहाँतक बर्णन करूँ ' उन्हींके अनुग्रहसे युधिष्ठिर
आदि मेरे पित्ामहोंकों सभो प्रकारका दिव्य भोजन प्रदान
करनेवाला अक्षय पात्र मित्म था, जिससे वनमें भी वे
ब्राह्मणोंको संतुष्ट करते थे । जिन भगवान् सूर्यकी देवता, ऋषि,
सिद्ध तथा मनुष्य आदि निरन्तर आराधना करते रहते हैं उन
भगवान् भास्करके माहात्म्यकों मैंने अनेक बार सुना है, पर
नक्तं माहात्प्प सुनते-सुनते मुझे तृप्ति नहीं होती । जिनसे
सम्पूर्ण विश्व उत्पन्न हुआ है तथा जिनके उदय होनेसे हो सारा
संसार चेष्टावान् होता है, जिनके हाथोंसे ल्मेकपूजित ब्रह्मा और
किष्णु तथा लल्माटसे शंकर उत्पन्न हुए है, उनके प्रभावका
वर्णन कौन कर सकता है ? अब मैं यह सुनना चाहता हूँ कि
जिस मन्त्र, स्तोत्र, दान, स्नान, जप, पूजन, होम, व्रत तथा
उपकसादि कर्मोंक करनेसे भगवान् सूर्य प्रसन्न होकर सभी
कष्टोंको निवत्त करते हैं और संसार-सागरसे मुक्त करते हैं,
अप उन्ही उत्तम मन्त्र, स्तोत्र, रहस्य, विद्या, पाठ, ब्रत आदिको
बतायें, जिनसे भगवान् सूर्यका कीर्तन हो और जिह्वा धन्य हो
जाय। क्योंकि वही जिह्वा धन्य है जो भगवान् सूर्यका स्ववन
करती है। सूर्यकी आराधनाके बिना यह करीर व्यर्थ है। एक
बार भी सूर्यनारायणको प्रणाम करनेसे प्राणीका भवसागरसे
उद्धार हो जाता है। रत्रोंका आश्रय मेरुपर्तत, आश्वर्योका
आश्रय आकरा, तीर्थोंका आश्रय गङ्गा और सभो देवताओकि
आश्रय भगवान् सूर्य हैं। मुने ! इस प्रकार अनन्त गुणोंवाले
भगवान् सूर्यके माहात्यक्रे मैंने बहुत बार सुनः दै । देवगण भौ
भगवान् सूर्यकी ही आराधना करते है, यह भी मैंने सुना है ।
अब मेरा यही दृढ़ संकल्प है कि सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें
निवास करनेवाले तथा स्मरणमात्रसे समस्त पाप-तापोंको
दूर करनेवाले भगवान् सूर्यको भक्तिपूर्वक उपासना कर मैं भी
संसास्से मुक्त हो जाऊँ।
(अध्याय ५९-६० )
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भगवान् सूर्यद्वारा योगका वर्णन एवं ब्रह्माजीद्वारा दिण्डीको
दिया गया क्रियायोगका उपदेश
सुषन्तु मुनिने काहा-- राजन् ! ऋषियोंको जिस प्रकार
क्रह्माजीने सूर्यन्रायणकी आराधनाके चिधानका उपदेश दिया
था, उसे मैं सुनाता हूँ।
किली समय ऋषियोंने त्रह्माजीसे प्रार्थना कौ कि
महाराज ! सभी प्रकारकी चित्तवृत्तिके निरोधरूपी योगको
आपने कैवल्यपटको देनेवाला कहा रै, किंतु यह योग अनेक
जन्पोंकी कठिन साधनाके द्वारा प्राप्त हो सकता है। क्योंकि
इन्द्रियोंकों! चत्परत् आकृष्ट करनेवाले विषय अत्यन्त दुर्जय हैं,
मन किसी प्रकारसे स्थिर नहीं होता, राग-द्रेष आदि दोष नहीं
छूटते और पुरुष अल्पायु होते हैं, इसलिये योगसिद्धिका प्राः