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श्रीकरसिंहपुराण
{ अध्याय २६
हृषदादभिशम्भु: । अभिशम्भोर्दारुणो
दारुणात्सगर:॥ ५॥ सगराद्धर्यश्वो हर्यश्वाद्धारीतो
हारीताद्रोहिताश्व: । रोहिताश्चादंशुमान्॥ ६ ॥ अंशुमतो
भगीरथः। येन महता तपसा पुरा दिवो गड्ढा
अशेषकल्मषनाशिनी चतुर्विधपुरुषार्थदायिनी
भुवमानीता। अस्थिशर्कराभूताः कपिलमहर्षि
निर्दग्धाश्च गुरवः सगराख्या गड्जतोयसंस्पृष्टा
दिवमारोपिता:। भगीरथात् सौदासः
सौदासात् सत्रसवः ॥७॥ सत्रसवा-
दनरण्योऽनरण्यादीर्घकाहुः ॥८॥ दीर्घयाहो-
रजोऽजाद्शरथः। तस्य गृहे रावणविनाशार्थं
साक्षान्नारायणोऽवती्णों रामः ॥ ९॥
स तु पितृवचनाद् भातृभायां सहितो दण्डकारण्यं
प्राप्य तपश्चचार। बने राबणापहतभार्यो धात्रा सह
दुःखितोऽनेक कोटि वानरनायक सुग्रीवसहायो
पहोदधौ सेतुं निबध्य तैरगत्वा लङ्क रावणं देवकण्टकं
सबान्धवं हत्वा सीतामादाय पुनरयोध्यां प्राप्य
भरताभिषिक्तो विभीषणाय लङ्काराज्यं विमानं वा
दत्त्वा तं प्रेषयामास । स तु परमेश्वरो विपानस्थो
विभीषणेन नीयमानो लद्भायामपि राक्षसपुर्या
वस्तुमनिच्छन् पुण्यारण्यं तत्र स्थापितवान् ॥ १०॥
तन्निरीक्षय तत्रैव महाहिभोगशयने भगवान् शेते ।
सोऽपि विभीषणस्ततस्तद्विमान॑ नेतुमसमर्थ:,
तद्वचनात् स्वां पुरीं
नारायणसंनिधानान्महदैष्णवं क्षेत्रमभवदद्यापि
दृश्यते। रामाह्लवो लवात्यदाः पद्माहतुपर्ण
जनगाप्र ॥१९१॥
दृषदसे अभिशम्भु हुआ। अभिशम्भुसे दारुण और दारुणसे
सगरका जन्म हुआ। सगरसे हर्यश्च, हर्यश्वसे हारौत,
हारीतसे रहिताश्च, रोहिताश्चसे अंशुमान् और अंशुमान्से
भगीरथ हुए, जो पूर्वकालमें बहुत बड़ी तपस्या करके
समस्त पापोंका नाश करनेवाली और चारों पुरुषार्थोंको
देनेवाली गङ्खाको आकाशसे पृथ्वोपर ले आये। उन्होंने
गङ्गाजलके स्पर्शसे अपने 'सागर' संज्ञक पितरोंको, जो
महर्षि कपिलके शापसे दध होकर अस्थि-भस्ममात्र
शेष रह गये थे, स्वर्गलोकको पहुँचा दिया। भगीरथसे
सौदास और सौदाससे सत्रसवका जन्म हुआ। सत्रसवसे
अनरण्य और अनरण्यसे दीर्घयाहु हुआ। दीर्घयाइसे अज
तथा अजसे दशरथ हुए। इनके घरमें साक्षात् भगवान्
नारायण राबणका नाश करनेके लिये ' राप" रूपमें अवतीर्ण
हुए धे॥ ४--९॥
राम अपने पिताके कहनेसे छोटे भाई लक्ष्मण तथा
पत्नोसहित दण्डकारण्यमें जाकर तपस्या करने लगे। ठस
वने राबणने इनकी पत्नी सीताका अपहरण कर लिया।
इससे दुःखी होकर वे अपने भाई लक्ष्मणको साध लेकर
अनेक करोड़ बानर-सेनाके अधिपति सुग्रोवकों सहायक
बनाकर चले और महासागरमें पुल बाँधकर उन सबके
साथ लड़ामें जा पहुँचे। वहां देवताओंके मार्गका काँटा
बने हुए रावणकों उसके बन्धु-बान्धवोंसहित मारकर
सीताकों साथ ले पुनः अयोध्यामें लौट आये। अयोध्यामें
भरतजीने उनका "राजा" के पदपर अभिषेक किया।
श्रीरामने विभीषणको लङ्काका राज्य तथा
( विष्णुप्रतिमायुक्त ) विमान देकर अयोध्यासे विदा किया।
विमानपर बिराजमान परमेश्वर विष्णु विभीषणद्वारा ले
जाये जानेपर भी राक्षसपुरी लङ्काम निवासं करना नहीं
चाहते थे, अतः विभीषणने वहाँ जिस पवित्र वनकी
स्थापना की थी, उसको देखकर वे उसोमें स्थित हो गये।
वहाँ महान् सर्थ-शरौरकी शय्यापर भगयान् शयन करते
ह । विभीषण भी जब यहाँसे उस्र विमानको ले जानेमें
असमर्थ हो गये, तन भगवानृके हो कहनेसे वे उन्हें वहीं
छोड़ अपनी पुरी लङ्काको चले गये॥ १०-११॥
भगवान् नारायणकी उपस्थितिसे वह स्थान महान्
वैष्णवतीर्थ हो गया, जो आज भी श्रीरङ्गघेत्रके नामसे
प्रसिद्ध देखा जाता है । रामसे लव, लवसे पद्म, पद्मसे