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अथवा अनेकों अवतार ग्रहण करके उन्हें क्रमशः धारण
करते हैं?॥९॥ मुनिवर ! आप वेद और ब्रह्मत्व
दोनोके पूर्ण मर्मज्ञ है, इसलिये मेरे इस सन्देहका निवारण
कीजिये ॥ १० ॥
सुतजी कहते है-- जन राजा परीक्षितने भगवानके
गुणका वर्णन करनेके लिये उनसे इस प्रकार प्रार्थना की,
तब श्रीशुकदेवजीने भगवान् श्रीकृष्णका यार-यारं स्मरण
करके अपना प्रवचन प्रारम्भ किया ॥ ११॥
श्रीशुकदेबजीने कहा--उन पुरुषोत्तम भगवानके
चरणकमलोंमें मेर कोटि-कोटि प्रणाम हैं, जो संसारकी
उत्पत्ति, स्थिति ओर प्रलयकी लीला करनेके लिये सत्व,
रज तथा तमोगुणरूप तीन शक्तियोको स्वीकार कर ब्रह्मा,
विष्णु ओर शङ्करका रूप धारण करते हैं; जो समस्त
चर-अचर प्राणियोंके हदये अन्तर्यापीरूपसे विराजमान
हैं, जिनका स्वरूप और उसकी उपलब्धिका मार्ग बुद्धिके
विषय नह हैं; जो स्वय अनन्त हैं तथा जिनको महिमा भी
अनन्त है॥१२॥ हम पुनः बार-बार उनके चरणोमें
नमस्कार करते हैं, जो सत्पुरुषोंका दुःख मिटाकर उन्हें
अपने प्रेमका दान करते हैं, दुष्टौकी सांसारिक बढ़ती
रोककर उन्हें मुक्ति देते हैं तथा जो लोग परमहंस आश्रमे
स्थित हैं, उन्हें उनकी भी अधीष्ट वस्तुका दान करते हैं ।
क्योंकि चर-अचर समस्त प्राणी उन्हींकी मूर्ति हैं, इसलिये
किसीसे भो उनका पक्षपात नहीं है॥ १३ ॥ जो बड़े ही
भक्तवत्सल हैं और हठपूर्वक भक्तिहीन साधन करनेवाले
लोग जिनकी छाया भी नहीं छू सकते; जिनके समान भी
किसीका ऐश्वर्य नहीं है, फिर उससे अधिक तो हो ही कैसे
सकता है तथा ऐसे ऐश्वर्यसे युक्त होकर जो निरन्तर
ब्रह्मस्वरूप अपने धामे विहार करते रहते हैं, उन भगवान्
श्रीकृष्णको मैं बार-बार नमस्कार करता हँ ॥ १४ ॥
जिनका कीर्तन, स्मरण, दर्शन, वन्दन, श्रवण और पूजन
जीवॉके पापक तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीर्ति
भगवान् श्रीकृष्णको बार-बार नमस्कार है ॥ १५॥ विवेकी
पुरुष जिनके चरणकमलॉकी शरण लेकर अपने हृदयसे
इस लोक और परलोककी आसक्ति निकाल डालते हैं
और बिना किसी परिश्रमके ही ब्रह्मपदको प्राप्त कर लेते
हैं, उन मङ्गलमय कीर्तिवाले भगवान् श्रीकृष्णको अनेक
बार नमस्कार रै॥ १६॥ बड़े-बड़े तपस्वी, दानी,
यशस्वी, पनस्वी, सदाचारी ओर मन्त्रवेत्ता जबतक अपनी
साधनाओंको तथा अपने-आपको उनके चरणों समर्पित
नहीं कर देते, तबतक उन्हें कल्याणकी प्राप्ति नहीं होती ।
जिनके प्रति आत्मसमर्पणकी ऐसी महिमा है, उन
कल्याणमयी कीर्तिवाले धगवानृको बार-बार नमस्कार
है॥ १७॥ किरात, दण, आख, पुलिन्द, पुल्कस,
आभीर, कङ्क, यवन और खस आदि नीच जातियाँ तथा
दूसरे पापौ जिनके शरणागत भक्तोंकी शरण ग्रहण करनेसे
ही पवित्र हो जाते हैं, उन सर्वशक्तिमान् भगवानको
बार-बार नमस्कार दै ॥ १८ ॥ वे ही भगवान् ज्ञानियोके
आत्मा हैं, भक्तोंके स्वामी है, कर्मकाण्डियेकि लिये वेदमूर्ति
हैं, धार्भिकोके लिये धर्ममूर्ति हैं और तपस्वियोकि लिये
तपःस्वरूप है । ब्रह्म, शङ्कुर आदि बड़े-बड़े देवता भी
अपने शुद्ध हृदयसे उनके स्वरूपका चिन्तन करते और
आश्चर्वचकित होकर देखते रहते रै । वे मुञ्जपर अपने
अनुग्रहकौ--प्रसादकी वर्षा करें॥ १९॥ जो समस्त
सम्पत्तियोंकी स्वामिनी लक्ष्मीदेवीके पति हैं, समस्त यज्ञॉंके
भोक्ता एवं फलदाता हैं, प्रजाके रक्षक हैं, सबके
अन्तर्यामो और समस्त लोकोंके पालनकर्ता हैं तथा
पृथ्वीदेवीके स्वामी हैं, जिन्होंने यदुबंशमें प्रकट होकर
अन्धक, वृष्णि एवं यदुवंशके लोगोंकी रक्षा की है, तथा
जो उन लोगोके एकमात्र आश्रय रहे है--वे भक्तवत्सल,
संतजनोके सर्वस्व श्रीकृष्ण मुझपर प्रसन्न हों॥२०॥
विद्वान् पुरुष जिनके चरणकमलोंके चिन्तनरूप समाधिसे
शुद्ध हुई बुद्धिके द्वारा आत्मतत्त्वका साक्षात्कार करते हैं
तथा उनके दर्शनके अनन्तर अपनी-अपनी मति और
रुचिके अनुसार जिनके स्वरूपका वर्णन करते रहते हैं, वे
प्रेम और मुक्तिके लुटानेवाले भगवान् श्रीकृष्ण मुझपर
प्रसन्न हों ॥ २१ ॥ जिन्होंने सृष्टिके समय ब्रह्मके हृदयमें
पूर्वकल्पकी स्पृति जागरित केके लिये ज्ञानकी
अधिष्ठात्री देवीकों प्रेरित किया और वे अपने अद्गोके
सहित वेदके रूपमे उनके मुखसे प्रकट हुई, वे ज्ञानके
मूलकारण भगवान् मुझपर कृपा करें, मेरे हृदयमें प्रकट
हों॥ २२॥ भगवान् ही पञ्चमहामूरतोसि इन शरीरोंका
निर्माण करके इनमें जीवरूपसे शयन करते हैं और पाँच
ज्ञानेन्द्रिय, पांच कर्मेन्द्रिय, पाँच प्राण और एक मन--इन
सोलह कलाओंसे युक्त होकर इनके द्वारा सोलह