३० अवर्ववेद संहिता भाग-१
सदृश द्रुतगामी है । आप हमे सुख प्रदान करें तथा हमारे लिए अपनत्व सूचक शब्द कहें हम आपको नमन करते
हुए हवि प्रदान करते हैं ॥४ ॥
५५१. येइस्यां स्थ श्रुवायां दिशि निलिष्पा नाम देवास्तेषां व ओषधीरिषवः ।
ते नो मृडत ते नोऽधि ब्रूत तेभ्यो वो नमस्तेभ्यो वः स्वाहा ॥५ ॥
हे देवो । आप नीचे की दिशा में निरन्तर निवास करने वाले 'निलिष्या' (खेप लगाने वाले) नामक देवता हैं ।
ओषधियाँ हौ आपके बाण है । आप हमें सुख प्रदान करें तथा अपनत्व सूचक उपदेश करे । हम आपके लिए नमन
करते हुए हवि प्रदान करते हैं ॥५ ॥
५५२. ये३स्यां स्थोर्ध्वायां दिश्यवस्वन्तो नाम देवास्तेषां वो बृहस्पतिरिषव:।
ते नो मृडत ते नोऽधि ब्रूत तेभ्यो वो नमस्तेभ्यो वः स्वाहा ॥६ ॥
है देवो । आप ऊपर की दिशा में सुरक्षा करने वाले 'अवस्वन्त' (रक्षाधिकारी) नापर से निवास करते रै ।
बृहस्पतिदेव ही आपके बाण है । आप हमें सुख प्रदान करें तथा हमारे लिए अपनत्व सूचक उपदेश करें । हम
आपके लिए नमन करते हुए हवि प्रदान करते हैं ॥६ ॥
[ २७- शत्रुनिवारण सूक्त ]
[ऋषि - अर्वा । देवता - रुद्र १ प्राची दिश, अग्नि. असित आदित्यगण, २दक्षिण दिशा, इन्द्र, तिरक्षिराजो,
पित्तरगण, ३ प्रतीचौ दिशा, वरुण, पृदाकु, अन्न, ४ उदीची दिशा, सोम, स्वज, अशनि, ५ धुव दिशा, विष्णु,
कल्मात्ग्रीव, वीरुध, ६ ऊर्ध्वं दिशा, बृहस्पति, चित्र (श्वेतरोग) वर्षा (वृष्टिजल) । छन्द् - पञ्चपदा ककुम्मतो
गर्भाष्ट, २ पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा अत्यष्टि ५ पञ्चपदा ककुम्मतीगर्भा भुरिक् अष्टि ]
५५३. प्राची दिगग्निरथिपतिरसितो रक्षितादित्या इषवः ।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।
योरेस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥९॥
पूर्व दिशा हमारे ऊपर अनुग्रह करने वाली हो । पूर्व दिशा के अधिपति अग्मिदेव हैं, रक्षक 'असित'
(वन्धनरहित) है, "बाण प्रहरक आदित्य हैं। इन (दिशाओं के) अधिपततियों, रक्षकों तथा बाणों को हमारा नमन
है । ऐसे सभी (हितैषियो) को हमारा नमन है । जो रिपु हमसे विद्वेष करते हैं तथा जिनसे हम विद्विष करते हैं, उन
रिपुओं को हम आपके जबड़े (या दण्ड व्यवस्था) में डालते हैं ॥१ ॥
५५४. दक्षिणा दिगिनदरोऽथिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः ।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।
योस्मान् दष्ट यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥२॥
दक्षिण दिशा के अधिपति इद्धदेव उसके रक्षक 'तिरक्षिराजी' (मर्यादा में रहने वाले) तथा 'बाण' पितृदेव
है । उन अधिपलियों, रक्षको तथा रणो को हमारा नमन है । ऐसे सभी हितैषियों को हमारा नमन है । जो रिपु हमसे
विद्वेष करते हँ तथ] जिनसे हम विद्रेष करते हैं, उन रिपुओं को आपके नियन्रण में डालते हैं ॥२ ॥
५५५. प्रतीची दिग् वरुणोऽधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः ।
तेभ्यो नमोऽधिपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु ।
योडेस्मान् द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ॥३ ॥