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चलता हुआ आरम्णसे हौ प्रजाको प्रसन्न रखे ¦
सारतो व्यसनोंका परित्याग कर दे; क्योकि वे
राजाका मूलोच्छेद करनेवाले हैं। अपनी गुप्त
मन्त्रणाके बाहर फूटनेसे उसके द्वाण लाभ ठठाकर
शत्रु आक्रमण कर देते हैं; अक्तः ऐसा न होने
देकर शत्रुओंसे अपनी रक्षा करे। जैसे स्थी रथकी
गत्ति वक्र होनेपर आठों प्रकारसे नाशकौ प्राप्त
होता है, उसके ऊपर आटो दिशार्थे्ति प्रहार होने
लगते हैं, उमरी प्रकार गुप्त मन्त्रणाके बाहर
'फूटनेपर राजाके अरौ? वर्गोका निश्चय ही नाश
होता है। गजाको इस चातका भी पता लगाते
रहना चाहिये कि शज्नुद्वारा उत्पन्न किये गये दोषसे
अथवा शत्रुओंके बहऋ।बेमें आकर अपने मन्त्रियोंमेंसे |
कौन दुष्ट हो गवा है और कौन अदुष्ट-कौन
अपना साथी हैं और कौन शत्रु मिला हुआ।
इसी प्रकार बुद्धिमान् चर हिवुक्त करके शत्रैके
चरोंपर भी प्रयत्तपूर्बक दृष्टि रखनी चाहिये।
राजाकों अपने मित्रों तथा माननीय बन्धु बान्धवोंपर
भी पूर्णतः विश्वास नहीं करना चाहिये। किन्तु
काप आ पड़नेपर उसे शत्रुपर भी विश्वास कर
लेना चाहिये। किस अवस्थामें शत्रुपर चढ़ाई
न करके अपने स्थानपर स्थित रहना उचित है,
क्या करनेसे अपनी वृद्धि होगी और किस
कार्यसे अपनी हानि होरेकौ सम्भावना है-
इन सब आतोंका राजाकों ज्ञान होना चाहिये।,
वह छः? गुणोंका उपयोग करना जाने और
+संक्षिम मार्कण्डेयपुराण +
७७ मे ५: ##& 555 %2५ श+
कभी कामके अधोन न हो। राजा पहले अपने
आत्माकों, फिर मन्त्रियोंकों जीतें। तत्सशात्
अपनेसे भरण-पोषण पानेवाले कुट्टप्नीजनों एवं
सेबकॉंके हृदयपर अधिकार प्राप्त करे। तदनन्तर
घुरब्रासियोंकों अपने गोसे जीते। यह सब हो
जानेपर शत्रुओंके साथ विरोध करे। जो इन
सरको जीते बिना ही शत्रुओपर विजय पान
चाहता है, बह अपने आत्मा तथा मांन्त्रयोपर
अधिकार न रखनेके कारण शत्रुसमुदायके वशपें
पड़कर कष्ट भोगता है।*
क च ५१७५ # 9 ४ ४5 ०5444447.
इसलिये बेटा! पृथ्वीका पालन करनेवाले
१. कटू वचन बोलना, कठोर दण्ड दैना, धनकरा अपन्यय करना, पदिश पौंना, स्त्रियॉमें असर रखना,
शिकार खेलमेमें व्यथं समर स्षणाना और बुआ छेलना-ने राजाके सात व्यसन हैं।
२. खेतीकी उत्ति, न्वापारकी बुद्धि, दुर्गनिर्माण, पुल बनाना, जंगलसे हाथी पकड़कर पँगबाला, खानोंपर अधिकार
प्राप्त करता, अधीन ग़जाओंसे ऋर लना और निर्वन प्रदेशकों आबाद करता-ये आट कं कलार हैं।
३. स्रि, विग्रह, चान, आस्न, कैधीभाव और समाश्रय-ये हः गुण हैं। नँ त्से नेत्त रखना सन्धि. उससे
लड़ाई छेड़ना विग्रह, आक्रमण करना याग, अवरूकी प्रतीक्षागें बैठे रहता आसन्, दुरंगी नोति रतना दैधौभाव
और अपनेसे कचान् राङाक्तौ शरण ए स्रमाश्रय कहलाता ₹।
* वत्स
गाच्यैऽभिषिकैन प्रजयञ्रनमादिनः । कर्वव्यम॑विरोधेन स्वधर्मस्य मरोशृता॥
व्यसनानि पॉरित्यज्य सरा पूलहराणि नै । आत्मा शिुभ्यः संरश्यो बरहिमन्रतिनिर्गमात् ॥