Home
← पिछला
अगला →

ख्राह्मरर्ण ]

* भगवान्‌ सूर्यद्वारा योगका वर्णन *

८५

ह्येना अतिहाय कठिन है। अतः आप ऐसे किसी साधनका

उपदेक् करें जिससे बिना परिश्रमके ही निस्तार हो सके ।

ब्रह्माजीने कहा ~ मुनीश्चरो ! यज्ञ, पूजन, नमस्कार,

जप, व्रतोपवास और ब्राह्मण- भोजने आदिसे सूर्यनागयणकी

आराधना करना ही इसका मुख्य उपाय दै । यह क्रियायोग है ।

मन, बुद्धि, कर्म, दृष्टि आदिसे सूर्यनाययणकौ आग्रधनामें

तत्पर रहे। यै ही परक्रह्म, अक्षर, सर्वव्यापी, सर्वकर्ता,

अय्यक्त, अचिन्त्य और मोक्षको देनेवाले हैं। अतः आप

उनकी आगधना कर अपने मनोवाच्छित फलको प्राप्त को और

भवसागरसे मुक्त हो जायैं। ब्राद्मजीसे यह सुनकर मुनिगण

सूर्यनारायणकी उपासना-रूप क्रियायोगमें तत्पर हो गये। हे

रजन्‌ ! विषयोंमें डूबे हुए संसारके दुःखो जोवोंक् सुख प्रदान

करनेवाले सूर्यनारायणके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है,

इसलिये उठते-बैठते, चलते-सोते, भोजन करते हुए सदा

सूर्यमागयणका हो स्मरण करो, भक्तिपूर्वक उनकी आराधनामें

प्रवृत्त होओ, जिससे जन्म-मरण, आधि-व्याधिसे युक्त इस

संसारसपुद्रसे तुम पार हो जाओगे। जो पुरुष जगत्कर्ता, सदा

यरदान देनेवाले, दयालु और ग्रहोंके स्वामी श्रीसूर्यनारायणको

शरणमे जाता है, वह अवश्य ही मुक्ति प्राप्त करता है।

सुमन्तु मुनिने पुनः कहा--राजन्‌ ! प्राचीन कालमें

दिप्डीका ब्रह्महत्या लग गयी थी। उस ब्रह्महत्याके पापको दूर

करनेके लिये उन्होंने बहुत दिनोंतक सूर्वनारायणको आराधना

और स्तुति की । उससे प्रसन्न हो भगवान्‌ सूर्य उनके पास

आये । भगवान्‌ सूर्यने कहा--दिष्डिन्‌ ! तुम्हारी धक्तिूर्वक

की गयी स्तुतिसे मै बहुत प्रसन्न हैँ, अपना अभीष्ट यर माँगो ।'

दिण्डीने कहा--महाराज ! आपने पधारकर मुझे दर्शन

दिया, यह मेरे सौभाग्यकी वात है। यही मेरे लिये सर्वश्रेष्ठ चर

है। पुण्यहीनोकि लिये आपका दर्झन सर्वदा दुर्लभ है। आप

सबके हृदयपे स्थित हैं, अतः आप सबका अभिप्राय जानते

हैं। जिस प्रकार मुझे ब्रह्महत्या लगी है, उसे तो आप जानते

ही है । भगवन्‌ ! आप मुझपर ऐसा अनुग्रह करें कि मैं इस

निन्दित ब्रह्महत्यासे तथा अन्य पापोसे शीघ्र मुक्त हो जाऊँ और

मैं सफल-मनोरथ हो जाऊँ। आप संसारसे उद्धारका उपाय

अतलायें, जिसके आचरणसे संसारके प्राणी सुखी हों।

दिप्डोके इस वचनकों सुनकर योगवेता भगवान्‌ सूर्यने उन्हें

निर्वोज-योगका उपदेदा दिया, जो दुःखके नियारणके ल््ये

औषधरूप है।

दिण्डीने प्रार्थना करते हुए कहा--महाराज ! यह

निष्कल-योग तो बहुत कठिन है, क्योंकि इश्द्रियोंकों जीतना

मनको स्थिर करना, अहं-दारीरादिका अभिमान और मसताका

त्याग करना, राग-द्वेषसे बचना--ये सब अतिशाय कष्टसाध्य

हैं। ये यातें कई जत्मोंके अभ्यास करनेसे प्राप्त होती हैं। अतः

आप ऐसा साधन बतलायें, जिससे अनायास बिना विशेष

परिश्रमके हौ फलको प्राप्ति हो जाय।

भगवान्‌ सूर्यने कहा--गणनाथ ! यदि तुम्हें मुक्तिकी

इच्छा है तो समस्ते क्लेशोंकों नष्ट करनेवाले क्रियायोगो सुनो ।

अपने मनको मुझमें लगाओ, भक्तिसे मेरा भजन करो, मेरा

यजन करो, मेरे परायण हो जाओ; आत्पाको मेरमें लगा दो,

मुझे नमस्कार करो, मेरी भक्ति करों, सम्पूर्ण ब्रह्माप्डसें सुद्ध

परिव्याप्त समझो , ऐसा करनेसे तुम्हारे सम्पूर्ण दोषोंका

विनाशा हो जायगा और तुम मुझे प्राप्त कर छोगे। भलीभाँति

मुझमें आसक्तं हो जानेपर राग-ल्प्रेभादि दोषोंके नाश हो

जानेसे कृतकृत्यता हो जातौ है। अपने मनको स्थिर करनेके

लिये सोना, चाँदी, ताम्र, पाषाण, कष्ठ आदिसे मेरी प्रतिमाका

निर्माण कराकर या चित्र ही लिखकर विविध उपचारोंसे

भक्तिपूर्वक पूजन करो । सर्वभावसे प्रतिमाका आश्रय ग्रहण

करो । चलते-फिरते, भोजन करते, आगे-पीछे, ऊपर-नोचे

उसौका ध्यान करो, उसे पवित्र तीथोंके जलसे खान कराओं ।

गन्ध, पुष्प, वख, आभूषण, विविध नैवेद्य और जो पदार्थ

स्वयैको प्रिय हों उन्हें अर्पण करो । इन विविध उपचार्गेसे मेरौ

प्रतिमाको संतुष्ट करो । कभी गानेकी इच्छा हो तो मेरी मूर्तिके

आगे मेरा गुणानुवाद गाओ, सुननेकी इच्छा हो तो हमारी कथा

सुनो । इस प्रकार मुझमें अपने मनको अर्पण करनेसे तुम्हें

परमपदकी ग्राप्ति हो जायगी। सभी कर्म मुझमें अर्पण करो,

डरनेकी कोई बात नहीं । मुझमें मन छगाओ, जो कुछ करो मेरे

लिये करो, ऐसा करनेसे तुम ब्रह्महत्या आदि सभी दोष-पापोसे

१- मन्मना भव मद्धक्तों मधाजी मौ नमस्कुरु।माामेलैष्पसि युक्रत्वैजमात्यान॑ मत्पएवन. ॥

(आह्मपर्व ६२ | १९; गीता ९। ३४)

← पिछला
अगला →