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भगवान्‌ विष्णुके लिये पवित्रारोपणकी विधि

अग्निदेव कहते हैं-- मुने! प्रातःकाल स्नान | किया है, इसे आप ग्रहण करें। यह कर्मकी

आदि करके, द्वारपालोका पूजन करनेके पश्चात्‌ | पूर्तिका साधक है; अतः इस पवित्रारोपण कर्मको

गुप्त स्थानमें प्रवेश करके, पूर्वाधिवासित पवित्रकरमेंसे

एक लेकर प्रसादरूपसे धारण कर ले। शेष द्रव्य-

वस्त्र, आभूषण, गन्ध एवं सम्पूर्ण निर्माल्यको

हटाकर भगवान्‌को स्नान करानेके पश्चात्‌ उनकी

पूजा करे। पञ्चामृत, कषाय एवं शुद्ध गन्धोदकसे

नहलाकर भगवान्‌के निमित्त पहलेसे रखे हुए

वस्त्र, गन्ध और पुष्पको उनकी सेवामें प्रस्तुत

करे। अग्निमें नित्यहोमकी भाँति हवन करके

भगवान्‌की स्तुति-प्रार्थाना करनेके अनन्तर उनके

चरणों मस्तक नवावे। फिर अपने समस्त कर्म

भगवानूको अर्पित करके उनकी नैमित्तिकी पूजा

करे। द्वारपाल, विष्णु, कुम्भ और वर्धनीकी

प्रार्थना करे। * अतो देवाः ' इत्यादि मन्त्रसे, अथवा

मूल-मन्त्रसे कलशपर श्रीहरिकी स्तुति-प्रार्थना

करे--' हे कृष्ण! हे कृष्ण! आपको नमस्कार है।

इस पवित्रकको ग्रहण कीजिये। यह उपासकको

पवित्र करनेके लिये है और वर्षभर की हुई

पूजाके सम्पूर्ण फलको देनेवाला है। नाथ! पहले

मुझसे जो दुष्कृत (पाप) बन गया हो, उसे नष्ट

करके आप मुझे परम पवित्र बना दीजिये। देव!

सुरेश्वर! आपकी कृपासे मैं शुद्ध हो जाऊँगा।'*

हृदय, सिर आदि मन्त्रोंद्वारा पवित्रकका तथा

अपना भी अभिषेक करके विष्णुकलशका भी

प्रोक्षण करनेके बाद भगवानूके समीप जाय।

उनके रक्षाबन्धनको हटाकर उन्हें पवित्रक अर्पण

करे ओर कहे प्रभो) मैंने जो ब्रह्मसूत्र तैयार

आप इस तरह सम्पन्न करें, जिससे मुझे दोषका

भागी न होना पडे" ॥ १--९ ३॥

द्वारपाल, योगपीठासन तथा मुख्य गुरुओंको

पवित्रक चढ़ावे। इनमें कनिष्ठ श्रेणीका ( नाभितकका)

पवित्रक द्वारपालोंको, मध्यम श्रेणीका (जाँघतक

लटकनेवाला) पवित्रक योगपीठासनको और

उत्तम (घुटनेतकका) पवित्रक गुरुजनोंको दे।

साक्षात्‌ भगवान्‌कों मूल-मन्त्रसे वनमाला (पैरोंतक

लटकनेवाला पवित्रक) अर्पित करे। “नमो

विष्वक्सेनाय' मन्त्र बोलकर विष्वक्सेनको भी

पवित्रकं चढ़ावे। अग्निर्मे होम करके अग्निस्थ

विश्वादि देवताओंको पवित्रक अर्पित करे । तदनन्तर

पूजनके पश्चात्‌ मूल -मन्त्रसे प्रायश्चित्तके उद्देश्यसे

पूर्णाहुति दे । अष्टोत्तरशत अथवा पाँच औपनिषद-

मनतस पूर्णाहुति देनी चाहिये। मणि या मूँगोंकी

मालाओंसे अथवा मन्दार-पुष्प आदिसे अष्टोत्तरशतकी

गणना करनी चाहिये। अन्तम भगवान्‌से इस

प्रकार प्रार्थना करे-' गरुडध्वज ! यह आपकी

वार्षिक पूजा सफल हो। देव! जैसे वनमाला

आपके वक्षःस्थले सदा शोभा पाती है, उसी

तरह पवित्रकके इन तन्तुओंको ओर इनके द्वारा

की गयी पूजाको भी आप अपने हदयमें

धारण करें । मैंने इच्छासे या अनिच्छासे नियमपूर्वक

की जानेवाली पूजामें जो त्रुटियाँ की हैं, विघ्नवश

विधिके पालनमें जो न्यूनता हुई है, अथवा

कर्मलोपका प्रसङ्ग आया है, वह सब आपकी

* कृष्ण कृष्ण तमस्तुभ्य॑ गृदधोषयेदं पविक्रकम्‌ । पवित्रीकरणार्थाय यर्षपूजाफलप्रदम्‌ ॥

पवित्रकं कुरुष्याद्य यन्यया दुष्कृत कृतम्‌। शुद्धो भवाम्यहं देव त्वत्प्रसादात्‌ सुरे र ॥

(अग्नि ३६।६, ७)

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