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काण्ड-र सूक्त- १८ २९

[ १८- वनस्पति सूक्त ]

[ऋषि - अथर्वा । देवता - वनस्पति (वाणप्णीं ओषधि) । छन्द - अनुष्टपू ४ अनुष्टपगर्भाचतष्पाद्‌ उष्णिक्‌,

६ उष्णिकगर्भापध्यापंक्ति ]

इस सूक्त में प्रत्यक्ष स्य से सपमी (सौत) का पराधव करके पति को अपने प्रियपात्र के रूप में स्थापित करने का भाव

है। कौशिक सुतर में 'बाणापर्णी' नापक ओवधिं का इसके लिए प्रयोग कहा गया है । किसी समय सपत्नी जन्य पारिवारिक विग्रह

को दूर करने के लिए इस सूक्त का ऐसा भी प्रयोग किया जाता रहा होगा; किन्तु सूक्त के ऋषि अथर्वा पुन है । पुरुष किसी

डो परी सपली' नहीं कह सकता। यंत्र ४ में “अहं उत्तरा मैं उत्तरा (श्रेष्ठ ) हूँ, यह भी स्वीवाचक प्रयोग है । 'अस्तु' सूक्तार्थ को

केवल सफ्ली निवारण तक सीमित नहीं किया जा सकता। आलंकारिक रूप से 'परपात्मा या जीवात्या' को पति तथा

अथवा विद्वा एवं अविधा को पत्मियां कहा गया है । सदबुद्धि या विज्ञा यह कापना करे कि दुर्वुद्धि या अविद्य

लु तथा 'जीवात्मा' का स्नेह पे प्रति ही रहे- ऐसा अर्थ करने से इस सूक्त का भाव धी सिद्ध होता है एवं ऋषि तथा वेद की

गरिमा का निर्वाह भी होता है-

४८८.इमां खनाम्योषधिं वीरुधां बलवत्तमाम्‌। यया सपलीं बाधते यया संविन्दते पतिम्‌

हम इस बलवती ओषधि को खोदकर निकालते हैं । इससे सपली (दुर्बद्धि) को बाधित किया जाता है और

स्वामी की असाधारण प्रीति उपलब्ध की जातो है ॥१ ॥

[ कनस्पति( ओषधि) भूमि से खोदकर निकाली जाती है तथा सद्‌- अस्‌ विवेकयुक्त दिव्य प्रज्ञा को साधना द्वारा अंतःकरण

की गहराई से प्रकट किया जाता है । ]

४८९. उत्तानपर्णे सुभगे देवजूते सहस्वति । सपत्नीं मे परा णुद पर्ति मे केवलं कृधि ॥२

हे उत्तानपणीं (इस नाम की वा ऊर््वमुखी पत्तों वाली) हितकारिणी, देवों द्रारा सेवित, बलवती (ओषधे) !

आप मेरी सौत (अविद्या) को दूर करे । मेरे स्वामी को मात्र मेरे लिए प्रीतियुक्त करें ॥२ ॥

[ किद्ा का पक्ष लेने वाली प्रज्ञा को ऊर्घ्वेप्णी तथा देवों द्वारा सेवित कहना युक्ति संगत है । |

४९०. नहि ते नाम जग्राह नो अस्मिन्‌ रमसे पतौ । परामेव परावतं सपत्नीं गमयामसि ॥

हे सपत्नी, भँ तेरा (सपली.- दुर्बुद्धि का) नाम नहीं लेती । तू भी पति (परमेश्वर या जीवात्मा) के साथ सुख

अनुभव नहीं करती । मैं अपनी सपत्नी को बहुत दूर भेज देना चाहती हूँ ॥३ ॥

४९१. उत्तराहमुत्तर उत्तरेदुत्तराभ्य:। अधः सपत्नी या ममाधरा साधराभ्यः ॥४ ॥

हे अत्युत्तम ओषधे ! मैं श्रेष्ठ हूँ, श्रेष्ठों में भी अति श्रेष्ठ बनूँ । हमारी सपली (अविद्या) अधप है, वह

अधम से अधम गति पाये ॥४ ॥

४९२. अहमस्मि सहमानाथो त्वमसि सासहिः । उभे सहस्वती भूत्वा सपत्नीं मे सहावहै ॥

हे ओषधे ! मैं आपके सहयोग से सपत्नी को पराजित करने वाली हूँ । आप भी इस कार्य में समर्थ हैं। हम

दोनों शक्ति-सम्पन्न बनकर सपली को शक्तिहीन करें ॥५ ॥

४९३. अभि तेऽधां सहमानामुप तेऽधां सहीयसीम्‌।

मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥६ ॥

हि पतिदेव !) मैं आपके समीप, आपके चारों ओर इस विजयदायिनी ओषधि को स्थापित करती हूँ । इस

ओषधि के प्रभाव से आपका मन हमारी ओर उसी प्रकार आकर्षित हो, जैसे गौएँ बछड़े कौ ओर दौड़ती है तथा

जल नीचे की ओर प्रवाहित होता है ॥६ ॥

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