Home
← पिछला
अगला →

जआह्मपर्त ]

* भगवान्‌ सूर्यके पूजन एतं व्रतोदष्यापतका विधान +

अनन्तर जलते हुए उल्मुकसे पर्यप्रिकरण करते हुए घृतका तीन

आर उत्प्रवन करे । सुवा आदिका कुद्ञोंके द्वारा परिमार्जज और

सम्प्रोक्षण करके अग्रिमें सूर्यदेवकी पूजा करें और दाहिने

हथमें सुया प्रहणकर मूल मन्त्रसे हथन करें। मनोसोगपूर्वक

मौन धारण कर सभी क्रियाएँ सम्पन्न करनी चाहिये।

पूर्णाहुतिके पश्चात्‌ तर्पण करे । अनन्तर ब्राह्मणको उत्तम भोजन

कराना चाहिये और यधााक्ति उनको दक्षिणा भो देनी चाहिये ।

ऐसा केसे मनोवाज्छित फलक प्राप्ति होती है ।

माघ यासकौ सप्तमीको वरुण नामक सूर्यकी पूजा करे ।

इसी प्रकार क्रमश: फत्ल्गुनमे सूर्य, चै्रमे वैदाख' , वैरासवमे

धाता, ग्येष्ठमे इनदर, आपादुमे रवि, श्रावणपे नभ, भाद्रपदमें

यम, आशचिनमे पर्जन्य, कार्तिके त्वष्टा, मार्गशीर्षे भित्र तथा

पौष मासमें विष्णुनामक सूर्यका अर्चन करे । इस विधिसे

बारहो मासम अकृग-अलग नामोंसे भगवान्‌ सूर्यकी पूजा

करनी चाहिये । इस प्रकार श्रद्धा-भक्तिपूर्वक एक दिन पूजा

करलेसे वर्षपर्यन की गयी पृजाका फल प्राप्त हो जाता है।

उपर्युक्त विधिसे एक वर्षतक व्रत कर रत्नजटित सुवर्णका

एक रथ बनवाये और उसमें सात घोड़े बनवाये । रथके मध्यमें

सोनेके कमलके ऊपर रल्नौके आभृषणोंसे अलेकृत सूर्य-

नारायणकी सोनेकी मूर्ति स्थापित करें। रथके आगे उनके

सारचधिको यैतायै । अनन्तरं आरह ब्राह्मणों बारह महीनोंके

सूर्योकी भावना कर तेरहयें मुख्य आचारयेको साक्षात्‌

सूर्यनाययणण समझकर उनकी पूजा करें तथा उन्हें रथ, छत्र,

भूमि, गौ आदि समर्पित करे । इसी प्रकार रत्नोंके आभूषण,

वस्त्र, दक्षिणा और एक-एक घोड़ा उन बारह ब्राह्मणोंको दे

तथा हाथ जोड़कर यह प्रार्थना करे--' ब्राह्मण देवताओं ! इस

सूर्यव्रतके उद्यापन करनेके बाद यदि असमर्थताबश कभ

सूर्यव्रत ने कर सक तो मुझे दोष न हो।' ब्राह्मणक साथ

आचार्य भी 'एवमस्तु' ऐसा कहकर यजमानकों आज्ीर्वाद दे

और कहे--' सूर्यभगवान्‌ तुमपर प्रसन्न हों। जिस मनोरथकी

पूर्तिके लिये तुमने यह व्रत किया है ओर भगयान्‌ सूर्यकी पूजा

की है, यह तुम्हारा मनोरथ सिद्ध हो और भगवान्‌ सूर्य उमे

पूरा करे । अब व्रत न करनेपर भी तुमकों दोष नहीं होगा ।' इस

प्रकार आशर्वाद प्राप्त कर दीनो, अन्धो तथा अनाथ्थोंकों

यथाशक्ति भोजन कराये तथा ब्राह्मणोंकों भोजन कराकर,

दक्षिणा देकर व्रत्कौ सयाप्नि करे ।

जो व्यक्ति इस सप््मी-त्रतकों एक वर्षतक करता है, वह

सौ योजन ख्ये-चौडे देदाका धार्मिक राजा होता है और इस

स्रतके फल्से सौ यर्पोसि भी अधिक निष्कण्टकं राज्य करता

है। जो स्त्री इस व्रतकों करती है, वह राजपत्नी होती है। निर्धन

व्यक्ति इस व्रत्को यथाविधि सम्पन्न कर बतत्वयीं हुई विधिकर

अनुसार ताबेका रथ ब्राह्मणक देत है तो वह अस्सी योजन

लेबा-चौड़ा राज्य प्राप्त करता है । इसौ प्रकार आटेका रथ

बनवाकर दान करनेवाला साठ योजन विस्तृत राज्य प्राप्त करता

है तथा कह चिरायु, नीरोग और सुखी रहता है ¦ इस त्रतको

करनेसे पुरुष एक कल्पतक सूर्यलोकमे निवास करनेके पश्चात्‌

राजा होता है। यदि कोई व्यक्ति भगवान्‌ सूर्यकी मानसिक

आराधना भी करता है तो वह भी समस्त आधि-व्याधियोंसे

रहिते होकर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करता है। जिस प्रकार

भगयान्‌ सूर्यकों कुहग स्पर्श नहीं कर पाता, उसी प्रकार

मानसिक पूजा करनेवाले साधकको किसी प्रकारकी आपत्तियाँ

स्पर्श नहीं कर पातों। यदि किसीने मन्त्रोंके द्वारा भक्तिपूर्वक

विधि-विधानसे व्रत सम्पन्न करते हुए भगवान्‌ सूर्यगरययणकों

आगधना की तो फिर उसके विषयमे क्या कहना ? इसलिये

अपने कल्याणकः छिये भगवान्‌ सूर्यकी पूजा अवदय करनों

चाहिये ।

पुत्र ! सूर्यनारायणने इस विधि-विधानको स्वयं अपने

मुखसे मुझसे कहा था। आजतक उसे गुप्त रखकर पहली बार

मैंने तुमसे कहा है। मैंने इसो व्रतके प्रभावसे हजारों पुत्र और

पोतक प्राप्त किया है, दैल्पोंको जीता है, देवताओंको बशमें

किया है, मेरे इस चक्रमे सदा सूर्यभगवान्‌ निवास करते हैं।

नहीं तो इस चक्रमे इतना तेज कैसे होता ? यही कारण है कि

सूर्यनारायणका नित्य जप, ध्यान, पूजन आदि करनेसे मैं

जगतका पूज्प हूँ। चतस ! तुम भी मन, वाणी तथा कर्मसे

सूर्यनाययणकी आराधना करो । ऐसा करलेसे तुम्हें विविध सुख

प्राप्त होंगे। जो पुरुष भक्तिपूर्वक इस विधानकों सुनता है, यह

‡- प्राय: अव्य सभौ पुएणोसे चैत्रादि बाएह महीने सूर्येक दे नाप मिलते है -- धाता, अ्यम्द. मित्र, वरुण, इन्द्र, यियस्वान्‌, पृषा, पर्जन्य,

अदा, भाग, त्वाटा उरौ विष्णु । कल्प्भेदके अलुर्र नामने भेद रै ।

← पिछला
अगला →