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और विनाशरूप धर्मसे युक्त है। धन, यौवन और भोग

जल प्रतिब्िम्बित चन्द्रमाकी माँति चञ्चल हैं। यह जानकर

और इसपर भीति विचार करके भगवान्‌ शष्करकी

शरणमे जाना चाहिये और दान भी करना चाहिये । किसी

भी मनुष्यक्रे कदापि पाप नहीं करना चाहिये; यह वेदक

आशय है | अति यह भी कइती है कि महादेयजीका भक्त

जन्म और सृत्युके यन्धनमे नहीं पढ़ता । पूर्वकाले सायर्णि

भुनिने जो दो गाथाएँ गान की हैं, उन्हें सुनो--“भगवान्‌

धर्मका नाम दृष है । ये दी जिनके वाहन टै, उन महादेवजी-

की यदि पूजा की जाती है, तो वही सवते मदान्‌ धर्म कहा

गया है । जिसमें दुःखरूपी भवर उठता दै, अश्चनमय प्रवाह

बहता रहता है, धर्म और अधर्मं ही जिसके जठ हैं, जो

क्रोधरूपी क्रीचड़से युक्त है, जिसमें मदरूपी ग्राह निवास

करता है; ज रोभरूपी बुलबुछे उठते रहते रै, अभिमान ही

जिसकी पाताकृतक पहुँचनेयाक्नी गहराई १, सत्त्यगुणरूपी

जहाज जिसकी शोभा बढ़ाता है, ऐसे संसारक्षमुद्रमें ढूबने-

बाले जीवोंकों केवछ भगवान्‌ शहर ही पार छगाते हैं । दानः

शदाचार, शत, सत्य और प्रिय कचन, उत्तम कीर्ति; धर्म.

पाछन तथा आयुपर्यन्त दूसरोंका उपकार--इन सार बस्थुओं-

का इस असार दारौरसे उपार्जन करना चाद़्िये । राग दो तो

धर्मम, चिन्ता हो तो शास्त्रफी, व्यसन शो तो दानका--ये सभी

बातें उत्तम हैं। इन खबके साथ यदि विषयो परति बेराग्य

हो जाप तो समझना पादि, मनि अजन्मा फछ पा लिया ।*

इस भारतवर्धमे मनुप्यका शरीर, जो सदा टिकनेवाल्य नहीं दै,

पाकर जो अपना कल्याण नहीं कर छेता, उसने दीर्पकालतक-

के छिये अपने आत्मानो धोखेमें डाक दिवा । देवता और

असुर सबके छिये मतुष्य-योनिमें जन्म छेनेफा सौभाग्य

अत्यन्त दुर्लभ है । उसे पाकर ऐसा परय करना चाहिये,

जिससे नरकमें न जाना पढ़े । यह मानव-द्रीर सर्वस्थसाधन-

श्च मूल है तथा सब पुरुषायोकों सिद्ध करनेषाद्य है। यदि

हुम सदा छाम उठानेके दी प्रयासमें रहते हो, तो इस मूली

यत्नपूर्यक रक्षा करों । महान्‌ पुण्यरूपी मूल्य देकर तुम्दोरे

यह मानव-शरीररूपी नौका इसलिये खरीदी जाती दे

# दानं पृतं जतं चाचः कोर्तिध॑मंस्तथायुपः

परोपकरल॑ कायादखाराव्‌. सास्युझरेव्‌ ॥

चमे रागः शुतौ चिन्ता दाने व्यप्तनमुतत्मत्‌ ।

इ्ियादेषु वेयं सम्प्ाप्त जन्मनः फम्‌ ॥

( कन भान कुमान २।४७--४८ )

कि इसके द्वारा दुःखरूपी समुद्रके प्र पहुँचा जा सके |

जबतक यद नोक छिन्न. भिन्न नहीं दो जाती, तबतक ही तुम

इसके द्वारा खंखार-समुद्रकों पार कर लो । जो नीरोग मानव-

शरीररूपी दुर्लभ वस्तुको पाकर भी उसके द्वारा संसारसागर-

के पार नहीं हो जातां, वह नीच मनुष्य आत्महइत्यारा है।

शी शरीरम रहकर यतिजन परल्ओोफफे छिये तप करते टै, यत्-

कर्ता होम करते हैं और दाता पुरुष आदरपूर्यक दान देते हैं।”

कात्यायनने पूछा--सारस्वतजी ! दान और तपस्ामे

कोन दुष्कर है तथा कौन परछोकर्मे महान्‌ पल देनेवाल्म रै;

यह वश्ये ।

सारस्थतने कहा--सुने ! इस शृष्वीपर दानसे बदुकर

अत्यन्त दुष्कर कोई कार्य नहीं है । यह प्रत्यक्ष देखा ज्यता

है। समी लोग इसके खश्षी हैं | मनुष्य घनके लिये मदान्‌

छोम दोनेफे कारण अपने प्यारे प्राणोका भी मोह छोड़कर

महामयङ्कर समुद्र, गट और पहाड़ोंमें प्रवेश कर जते टै ।

दूसरे लोग धनके ही लोभसे सेवा-जैसी निन्दित शति आभ

हेते हैं; जिसे कुत्तेक़ी गृत्तिफे समान त्याज्य माना गया है ।

कुछ छोग खेतीकी इत्ति अपनाते रै जिसमें प्रायः जीवोफी

हिंसा होती है और स्ववं भी बहुत ह्वे उठाने पढ़ते हैं । इस

प्रकार जो बड़े दुःखसे उपार्जन किया गया, सैकड़ों आयास-

प्रयाससे प्राप्त किया गवा, प्रार्णोसे भी अधिक प्रिय दै, उस

धनफ़ा त्याग अत्यन्त दुष्कर है । मनुष्य अपने दायते उठाकर

जो घन दूसरे देता है, अथवा जिसे वह खा-पीकर भोग

हेता है, यही धन वायम उस घनीका है । मरे हुए मनुप्य-

के घनसे तो दूसरे छोग मौज करते हैं। जो प्रतिदिन अपने

पास आकर याचना करता है, मैं उसे गुर मानता

हूँ; क्पोंकि यह नित्पप्रति दर्पणकी भाँति मेरे चित्तफा

मार्जन करके इसे स्वच्छ बनाता है | दिया जानेबाला घन

घटता नदी, अपितु सदा च्दृता ही रहता दै। टीक उसी प्रकार»

जैसे कुरे पानी उलीचनेपर यह शुद्ध और अधिक याला

होता है | एक अप्पे सुखके लिये सहस्सों जन्मोंके सुलोपर

पानी नहीं फेरना चाहिये । वुद्धिमान्‌ पुरुष एक ही जन्‍्ममें

इतना पुष्प सञ्चय कर छेता है; जो खइखों जन्मोंके लिये

पर्वात हेता दै । मूर्ख मनुष्य इस छोकमें दरिद्र हो आनेकी

आशंकासे अपने घनका दान नहीं करता, परंतु विद्वान्‌ पुरुष

एरलोकमें दरिद्र म शेना पढ़े; इस शङ्कते यहाँ षले हाथे'

घन बॉटता है । जिनका आभय ही नाशवान्‌ है, बे मनुष्य धन

रखकर क्या करेंगे ! जिलके छिये बे घन चाइते हैँ; यह शरीर

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