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+ 24 ~ 4 "9" २६ ता उाजतजाओ कुः, © ॥

जैसे नदियां समुद्र को पूर्ण करती हैं, वैसे ही कुश के आसन पर प्रतिष्ठित हुए यलोक मिवासक इदद्रैव

को तृप्त करते हैं। अपनो इच्छा मुख बलवान संरक्षक, शत्रुरहित, शुभ्र कान्ति वाले मरुद्गण वत्र हनन

कले में उन इन्द्रदेव की सहायता करते हैं ॥४ ॥

६१९. अभि स्ववृष्टिं मदे अस्य युध्यतो रघ्वीरिव प्रवणे ससुरूतयः।

इन्द्रो यद्त्री धृषमाणो अन्धसा भिनइलस्य परिधीरिव त्रितः ॥५ ॥

सोमपान से हर्षित हुए इन्द्रदेव उत्तम वृष्टि न करने वाले अमुर से युद्ध हेतु तद ए । संरक्षक मरुद्गण भौ

नदियों क प्रवाह को तरह उनकी ओर अभिषुख हुए । सोम से वृद्धि पाने वाते इद्धदेव ने उस असुर को

बलपूर्वक मारकर तोनों सीमाओं को मुक्त किया ॥५ ॥

६२०. परीं घृणा चरति तित्विषे शवोऽपो वृत्वी रजसो बुध्नमाशयत्‌।

वृत्रस्य यत्रवणे दुर्गृभिश्वनो निजघन्थ हन्वोरिन्र तन्यतुम्‌ ॥६॥

जब वृत्र - अमुर जलो को बाधित कर अंतरिक्ष के गर्भ में सो गया धा, तब जलो को मुक्त करने के लिए

हे इद्धदेव |! आपने कठिनता से वश में आने वाते वत्र की ठोड़ी पर वचर से प्रहार किया । इससे आपको कोर्वि

सर्वत्र फैली और बल प्रकाशित हुआ ॥६ ॥

६२१. हृदं न हि त्वा न्यूषन्त्यूमयो ब्रह्मणीन्ध तव यानि वर्धना ।

त्वष्टा चित्ते युज्यं वावृधे शवस्ततक्ष वत्रमभिभूत्योजसम्‌ ॥७ ॥

है इद्धदेव ! जैसे जलप्रवाह जलाशय को प्राप्त होते है, वैसे आपकी वृद्धि करने वाले हमारे यन रूप स्तो

आपको ग्राप्त होते हैं । त्वष्टदेव ने अयने बल को नियोजित कर आपके वल को बढ़ाया और शत्रु को पराभूत

करने में समर्थ आपके वञ्च को तीक्षण किया ॥७ ॥

६२२. जघन्वाँ उ हरिभिः संभृतक्रतविद्ध वत्र मनुषे गातुयन्नपः ।

अयच्छथा बाहवर्वत्रमायसमधारयो दिव्या सूर्यं दृशे ॥८॥

हे श्रेष्ठ कर्म सम्पादक इद्धदेव ! आपने घोड़ों पर चढ़कर, फौलादी वद्र को बाहुओं में धारण कर मनुष्यो

के हितों के लिए वत्र को माराजल मार्गों को खोला और दर्शन के लिए सूर्यटेव को लोके प्रतिष्ठित किया ॥८ ॥

६२३. बृहत्स्वश्वन्रममवद्यदुक्श्य१ मकृण्वत भियसा रोहणं दिव:।

यन्मानुषप्रधना इन्द्रमूतय: स्व्ृषाचो मरुतोऽमदन्ननु ॥९॥

वृत्र के भय से मनुष्यों ने आनन्ददायक, बलप्रद, आद्वादक और स्वर्गिक उक्तियों की रचना की , तब मनुष्यों

के हितार्थ युद्ध करने वाले, उनके निमित्त श्रेष्ठ कर्म करने वाले, आकाश - रक्षक इद्धदेव की मरुदगणों ने आकर

सहायता की ॥९ ॥

६२४. द्यौश्विदस्यामवाँ अह स्वनादयोयवीद्धियसा वतर इन्द्र ते।

वृत्रस्य यदरदथानस्य रोदसी मदे सुतस्य शवसाभिनच्छिर: ॥१० ॥

हे इन्द्रदेव ! सोमपान जनित हर्ष से आपने च्युलोक और पृथ्वी को प्रताड़ित करने बाले बृत्र के

सिर को अपने वज्र के बलपूर्वक आधात द्रात काट दिया । व्यापक आकाश भी उस वृत्र के विकराल शब्द से

प्रकम्पित हुआ ॥१० ॥

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