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अध्याय १४८ ] २६९

+ स्तुतस्वामीका माहात्म्य *

परम श्रेष्ठ, मङ्गलो परम मङ्गल, लाभोंमें परम | दुष्टोंके सामने इसका प्रवचन नहीं करना चाहिये।

लाभ और धर्माँमें उत्तम धर्म है। यशस्विनि ! मेरे | इसके स्वाध्याय करनेकी योग्यतावाले पुत्र या शिष्यको

निर्दिष्ट पथके पथिक पुरुष इसका पाठ करनेके | ही इसे सुनाना चाहिये। वसुधे! पाँच योजनके

प्रभावसे तेज, शोभा, लक्ष्मी तथा सब मनोरथोंको | विस्तारवाले इस क्षेत्रसे मेरा अतिशय प्रेम है। अतएव

प्राप्त कर लेते हैं। मनस्विनि! इसके पाठक इस | मैं यहाँ सदा निवास करता हूँ। यहाँ गङ्गाकी धारा

अध्यायमें जितने अक्षर हैं, उतने वर्षोतक मेरे | पूर्व दिशासे होकर पश्चिम दिशामें विपरीत बहती

धाममें सुशोभित होते हैं। प्रतिदिन इसे पढ़नेवाले | है।* ऐसे गुह्या रहस्यकी जानकारी सभी सत्कर्मोमिं

मानवका कभी पतन नहीं होता और उसकी | सुख प्रदान करती है। महाभागे! यही वह गुप्त क्षेत्र

इक्कीस पीढ़ियाँ तर जाती हैं। निन्दक, मूर्ख और | है, जिसके विषयमें तुमने पूछा था। [ अध्याय १४७]

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स्तुतस्वामीका माहात्म्य

पृथ्वी बोली - जगत्प्रभो ! गौओंकी महिमा | योगका फल भोगकर मुझमें स्थित संसारको

बड़ी विचित्र है । इसे सुनकर मेरी सम्पूर्ण शङ्कां | देखते है । मुझमें विधिपूर्वक निष्ठा रखनेवाले

शान्त हो गयीं। नारायण! ऐसे ही अन्य भी कुछ

गुप्त तीरथको बतानेकी कृपा कीजिये । प्रभो !

यदि इस क्षेत्रसे भी कोई विशिष्ट श्रेष्ठ क्षेत्र हो

तो उसे भी सुनाइये।

भगवान्‌ वराह कहते हैं--महाभागे! अब मैं

तुम्हें एक दूसरा क्षेत्र बताता हूँ, जिसका नाम है

*स्तुतस्वामी '। सुन्दरि! द्वापरयुग आनेपर मैं वहाँ

निवास करूँगा। उस समय श्रीवसुदेवजी मेरे पिता

होंगे और देवकी माता; कृष्ण्‌ मेरा नाम होगा

और उस समय मैं सभी असुरोंका संहार करूँगा।

उस समय मेंरे पाँच--शाण्डिल्य, जाजलि, कपिल,

उपसायक और भृगु नामक धर्मनिष्ठ शिष्य होंगे

और मैं वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा अनिरुद्ध-

इन चार रूपोंमें सदा प्रत्यक्ष रहूँगा। उस समय

कुछ लोग इस चतुर्वयूहकी उपासनासे, कुछ

ज्ञानके प्रभावसे और कुछ व्यक्ति सत्कर्ममें

परायण रहकर मुक्त होंगे। सुश्रोणि! कितनोंकों

तो इच्छानुसार किया हुआ यज्ञ तथा बहुतोंको

कर्मयोग इस संसारसे तार देता है। कुछ सज्जन

कितने मनुष्य सब जीवोंमें मेरा ही रूप देखते हैं।

भूमे! बहुत-से पुरुष अखिल धर्मोका आचरण

करते, सब कुछ भोजन कर लेते और सभी

पदार्थोका विक्रय भी करते हैं, तब भी यदि

उनका चित्त मुझमें एकाग्र रहा और वे उचित

व्यवस्थामें लगे रहे तो उन्हें मेरा दर्शन सुलभ हो

जाता है।

देवि! यह वराहपुराण संसारसे उद्धार करनेके

लिये परम साधन एवं महान्‌ शास्त्र है। मेरे

भक्तोंकी व्यवस्था ठीक रूपसे चल सके, इसलिये

मैंने इस परम प्रिय प्रयोगका वर्णन किया है।

शाण्डिल्यप्रभृति मेरे वे शिष्य इच्छानुसार इन

साधनोंका प्रचार (प्रवचन) करेंगे।

मेरे इस ` स्तुतस्वामी ' क्षेत्रसे लगभग पाँच

कोसकी दूरीपर पश्चिम दिशामें एक कुण्ड है ।

उसका जल मुझे बहुत प्रिय लगता है । उस अगाध

जलवाले सरोवरका पानी स्वर्णं अथवा मरकतमणिके

समान चमकता है। मेरे इस सरोवरे पाँच

दिनतक स्नान करनेसे मनुष्यके सभी पाप धुल

* आनुमानतः यह स्थान ऋषिकेशके ऊपर व्यासघाटसे कुछ दूर आगे है।

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