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अर्थात्‌ ६० दण्डके एकादशांशके समान होता

है-जैसे ६० में १९१ से भाग देनेपर ५ दण्ड २७

पल लब्धि होगी तो ५ दण्ड २७ पल उक्त

स्वरोंका उदयास्तमान होता है। किसी स्वरके

उदयके बाद दूसरा स्वर ५ दण्ड २७ पलपर उदय

होगा। इसी तरह पाँचोंका उदय तथा अस्तमान

जानना चाहिये। इनमेंसे जब मृत्युस्वरका उदय

हो, तब युद्ध करनेपर पराजयके साथ हो मृत्यु हो

जाती है ॥ ५--७॥

(अब शनिचक्रका वर्णन करते हैं--)

शनिचक्रमें १५ दिनोंपर क्रमश: ग्रहोंका उदय

हुआ करता है। इस पञ्चदश विभागके अनुसार

शनिका भाग युद्धे मृत्युदायक होता है। (विशेष-

जब कि शनि एक राशिमें ढाई साल अर्थात्‌ ३० मास

रहता है, उसमें दिन-संख्या ९०० हुई । ९०० में

१५ का भाग देनेसे लब्धि ६० होगी । ६० दिनका

१ पञ्चदश विभाग हुआ। शनिके राशिमें प्रवेश

करनेके बाद शनि आदि ग्रहोंका उदय ६० दिनका

होगा; जिसमें उदयसंख्या ४ बार होगी । इस तरह

जब शनिका भाग आये, उस समय युद्ध करना

निषिद्ध है) ॥ ८ ॥

(अब कुर्मपृष्ठकार शनि-बिम्बके पृष्ठका क्षेत्रफल

कहते हैं--) दस कोटि सहस्र तथा तेरह लाखमें

इसीका दशांश मिला दे तो उतने ही योजनके

प्रमाणवाले कूर्मरूप शनि-बिम्बके पृष्टका क्षेत्रफल

होता है। अर्थात्‌ ११००, १४३०००० ग्यारह अरब

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२६९

चौदह लाख तीस हजार योजन शनि-विम्ब

पृष्ठका क्षेत्रफल रै । (विशेष - ग्रन्थान्तरोमें ग्रहोंके

बिम्ब-प्रमाण तथा कर्मप्रमाण योजने ही कहे

गये है । जैसे ' गणिताध्याय ' में भास्कराचार्य--सूर्य

तथा चन्दरका विम्बपरिमाण-कथनके अवसरपर--

"विम्बं रवेद्विद्विशरत्तुसंख्यानीन्दो: खनागा-

म्बुधियोजनानि ।' आदि । यहाँ भी संख्या योजनके

प्रमाणवाली ही लेनी चाहिये ।) मघाके प्रथम

चरणसे लेकर कृत्तिकाके आदिसे अन्ततक शनिका

निवास अपने स्थानपर रहता है, उस समय युद्ध

करना ठीक नहीं होता॥९॥

(अब राहु-चक्रका वर्णन करते हैं--) राहु-

चक्रके लिये सात खड़ी रेखा एवं सात पड़ी रेखा

नानी चाहिये। उसमें वायुकोणसे नैर्ऋत्यकोणको

लिये हुए अग्निकोणतक शुक्लपक्षकी प्रतिपदासे

लेकर पूर्णिमातककी तिथियोंको लिखना चाहिये

एबं अग्निकोणसे ईशानकोणको लिये हुए

बायुकोणतक. कृष्णपक्षकी प्रतिपदासे लेकर

अमावास्थातककी तिथियोंको लिखना चाहिये।

इस तरह तिथिरूप राहुका न्यास होता है।

“र'कारको दक्षिण दिशामें लिखे और ' ह' कारको

वायुकोणमें लिखे। प्रतिपदादि तिधियोके सहारे

“क'कारादि अक्षरोंकों भी लिखे। नैत्यकोणमें

*सकार' लिखे। इस तरह राहुचक्र तैयार हो जाता

है। राहु-मुखमें* यात्रा करनेसे यात्रा-भद्गं होता

है॥ १०--१२॥

* देवालये गेहविधौ उलाशये गहोर्मुखं॑शम्भुदिशो विलोमतः ।

सीनार्क॑प्लिंहाकमृगार्कतस्त्रिधे खाते सुख्यात्‌ पृष्ठखिदिक्‌ शुभा पयेत्‌ ॥

(मुहूर्तचिन्तामणि, वास्तुप्रकरण, १९)

मुहूर्तचिन्तामणि-ग्रन्थोक्त रामाचार्यके प्रोक्त वचनानुसार राहुका भ्रमण अपने स्थात्रसे विलोम हौ होता है। जैसे लिखित चक्रे

शुक्लपक्षकों एकादश्कों राहुका मुख दक्षिण दिश्वमे कडा गया है और पुच्छ अमावास्या ठिथिपर रहेगो; क्योंकि राहुका स्वरूप सर्पकार

है और एकादशीके बाद दशमी, नवमी आदि विलोम तिथियोंपर राहुका मुख भ्रमण करेगा। इसी तरह शुक्लपक्षकौ प्रत्येक तिथियॉपर

राहुका मुलर आता रहेगा। जहाँपर राहुका मुख रहे, उस तिचे उस दिशे यात्रा करना ठोक नहो होता है । ककारादि अक्षरॉसे स्वरका

भी सम्बन्ध लिया गया है। जैसे पूर्वोक्त स्वरचक्रमें किस स्वर्का कौन वर्ण है, यह लिखा गया है; अत: जिस किथिपर जो वर्ण है, वह जिस

स्वरसे सम्बन्ध रखता हो, उस स्वरवाले भी उस दिशामें यात्रा ग को ।

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