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काष्ड-७ सूक्त- ३० १९

१८०३, त्रीणि पदा वि चक्रमे विष्णुर्गोपा अदाभ्यः । इतो धर्माणि धारयन्‌ ॥५॥

दूसरों के प्रभाव में न आने वाले, रक्षक, व्यापक विष्णु भगवान्‌ मे तीन पाँवों को इस जगत्‌ में रखा है एवं

तीनों लोकों को घर्मसहित धारण किया है ॥५ ॥

१८०४. विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्यशे । इन्द्रस्य युज्यः सखा ॥६ ॥

हे लोगो ! आप सब सर्वव्यापक विष्णु भगवान्‌ के कार्य (स्थान) को देखें । जहाँ से ये सब गुण- धर्मों का

अवलोकन करते है । ये इन्द्रदेव के अच्छे मित्र है ॥६ ॥

१८०५. तद्‌ विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम्‌ ॥७ ॥

बुद्धिमान्‌ , ज्ञानीजन, भगवान्‌ विष्णु के परमधाम का प्रत्यक्ष दर्शन उसी प्रकार करते हैं, जिस प्रकार द्युलोक

में स्थित चश्ुरुूप-सूर्यदेव को सब जन देखते है ॥७ ॥

१८०६. दिवो विष्णा उत वा पृथिव्या महो विष्ण उरोरन्तरिक्षात्‌।

हस्तौ पृणस्व बहुभिर्वसव्यैराप्रयच्छ दक्षिणादोत सव्यात्‌ ॥८ ॥

हे विष्णुदेव ! द्युलोक, भूलोक एवं विस्तृत अन्तरिक्ष से प्रचुर साधन आप अपने दोनों हाथों में भरकर हम

सबको प्रदान करें ॥८ ॥

[ २८ - इडा सूक्त (२७) ]

[ ऋषि- मेधातिथि । देवता-इडा । छन्द- त्रिष्टप्‌ । ]

१८०७. इडैवास्माँ अनु वस्तां व्रतेन यस्याः पदे पुनते देवयन्तः ।

घृतपदी शक्वरी सोमपृष्ठोप यज्ञमस्थित वैश्वदेवी ॥१ ॥

जिस धेनु के चरणों में, देवताओं के समान आचरण करने वाले यजमान पवित्र होते हैं, वे सोमपृष्ठा, फलदायी

सामर्थ्यवाली घृतपदी, समस्त देवताओं से सम्बन्धित इडा (वाणी) हमारे यज्ञ को सर्वत्र प्रकाशित करे । यह धेन

वैसा ही करे, जिंससे हमारे कर्म श्रेष्ठ फलदायक हों ॥१ ॥

[ २९ - स्वस्ति सूक्त (२८) ]

[ ऋषि- मेधातिथि । देवता- वेद । छन्द- त्िष्टप्‌ ।]

१८०८.बेद: स्वस्तिर्दृघण: स्वस्तिः परशुर्वेदि: परशुर्नः स्वस्ति ।

हविष्कृतो यज्ञिया यज्ञकामास्ते देवासो यज्ञमिमं जुषन्ताम्‌ ॥९॥

वेद (अथवा दर्भं समूह) हमारा कल्याण करने वाले हों । सुथार के हथियार, लकड़ी काटने वाला कुल्हाड़ा,

घास काटने वाली दशती, गँड़ासा (फरसा) आदि हमारे लिए कल्याणकारी हों । यह सब हवि बनाने वाले, यजन

करने वाले, यजमान का सहयोग करें ॥१ ॥

[ ३० - अग्नाविष्णू सूक्त (२९) ]

[ ऋषि- मेधातिथि । देवता- अग्नाविष्णू । छन्द- रिष्‌ ।]

१८०९. अग्नाविष्णु महि तद्‌ वां महित्वं पाथो घृत्स्य गुह्यस्य नाम ।

दमेदमे सप्त रत्ना दधानौ प्रति वां जिद्भा घृतमा चरण्यात्‌ ॥९॥

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