वैष्णवसण्ड-उत्कलखण्ड ] # राजाका पंकाप्नक्षेत्र (भुवनेश्वर ) में जाकर मंगवान् रिवका पूजन करना # २७१
इसलिये उन परमात्माके लिया ओर कोई भी सुखका कारण
नहीं है | राजेस््र | तुम अज्याजीकी सन्तान-परम्पराम पाँचवें
पुरुष हो, साथ ही श्रेष्ठ वैष्णव हो । तुमने अठारह विद्याओंमेँं
पूर्ण विदधता प्रास की है और तुम सदेव सदाचारमें स्थित रहते
हो। तमने इस पृथ्वीका स्वायपूर्यक पान किया है, विशेषतः
कम ब्राक्षणोंके पूज़क हो । अतः पुरुपोत्तमे इन चर्म.
अक्षुओंसे भगवान् पुरुषोत्तमका दर्शन तुम्हें अवश्य प्रास
होगा । तुम्हारे इस र्मे स्वयं ब्रक्षाजीने मुझे नियुक्त किया
है। पुरुषोत्तमक्षेत्रमं चलनेपर वह सब बात मैं तुम्हे
बताऊँगा । १५ समय रातका तीसरा पहर चल रहा है; इन
सब राजाओंकों अपने-अपने डेरेमें जानेकी आशा दो और
कम भी आराम करो ।
राजाका एकामसक्षेत्र ( शुवनेत्वर ) में जाकर भगवान् झिवका पूजन करना और
कर्तव्यकार्योका
भगवान् शिविका नारदजीसे उनके
संकेत करना
"४ कक +37-
जैमिनजी कहते हैं--नास्दजीके इस प्रकार आश्वासन
देनेपर राजा इस्द्रयुस्नने प्रसन्नचित्त होकर जब उत्तम बुद्धिसे
बिचार किया; तब अपने परिभमको सफछ माना और धभासदोको
विदा करके मुनिका एय अपने शप्र छेकर अन्तःपुरे
प्रवेश किया । फिर विभिपूर्यक उनकी पूजा करके उन्हें
परपर सुकाया और उन्हींके खाप बातचीत करते शेष
यन्नि व्यतीत की । तदनन्तर निर्म प्रभात होनेपर नित्य-
कर्म पूरा करके उन्दने जगननापजीका पूजन किया । तदनन्तर संब
मषटानदीके पार उतरे | इसके बाद ओदूदेशके राजे बताये
हुए मार्गखे राजा इस्द्रयुम्म अपनी सेनाके साथ एप्रयन
नामक क्रक ओर चले । बरसे कुछ दूर आगे जानेपर
मार्गमें थान्पयहा' नानवाली नदी मिली, जो बड़े बेगसे बह
रही थी । उसको पार करके आगे अदनेपर शङ्ख आदि
आध्योंकी ध्वनि स़ुनावी पढ़ी । तब राजाने नारंदजीसे पूछा---
'महासुने ! यह शब्द कहो हो रहा हे!
मारदजीने कहा- राजन् ! यह अत्यन्त दुम क्षेत्र
है। जिते भगवान् विष्णुने गुर कर रसला है | तुम
भाग्यवानोमे भे होः इसीखिये वम्र शौभाग्यसे जितेन्द्रिय
पुरोहिसने किसी प्रकार जाकर भगवानका दर्शन किया है। यसि
तीसरे योजनफर नीलगिरि विद्यमान है और यह मगवान्
गौरीपतिका एकाप्रबन नामक क्षेत्र है; जो अब अधिक दूर
महीं है । एक समय भगवान् शिवने लो कोरे आदिकारण
अनादि पुदपोत्तमच्् इस प्रकार स्तवन किग्रा--“हे नारायण |
है परम धाम | हे परमात्मन् ! दे परातपर ! है शश्िदानन्दमय
वैमवसे युक्त निरज्ञन परमेश्वर ! आपको मेरा नमस्कार है ।
आप संसारके करण ६ और गुणोंके भेदसे सष्टि; पाठन तथा
संहाररूप कर्म किया करते दै । स्वग्रकाश परमात्मन् ! आपने
अपनी ही योगमायासे अपनेकों गुस्त कर रक्ला है; आपको
नमस्कार है | आप न भीतर हैं न बाइर, साथ दी बादर मी
हैं ओर भीतर भी । दूर होते हुए भी अत्यन्त निकट हैं;
भारी, हल्के; सिर, अध्यन्त सुषम और अतिशय स्वूल
भी आप ही है; आपके छिये नमस्कार दै । गिनके कटाक्ष-
विलाससे कोटि-फोटि जहा ओर अगणित श उत्पन्न हेते
हैं, उन कालात्मा भीदरिस्मे नमस्कार दै। जिनके एक-एक
रोममैं अनेकानेक ब्रक्लाण्डोंका समुदाय भय हुआ है तथा
जिनका शरीर मोँप-जोखके बाहर टै, उन विश्वस्य मगवानको
नमस्कार दे । जिनके स्वरूपभूत काठके परिमाणे ब्रक्लाकी
खरि और प्रलय शेते रै, मन्वन्तर आदिकी सह्ृटना करनेयाले
उन भगवानकों नमस्कार है |”
जिपुरातुरका दाह फरनेपाके मगयान् शकर अव इस
प्रफार खयन किया, तथ शङ्ख, चक्र, गदा धारण करनेयाले,
बनमाछाविभूषित, हार, कुण्डल, केयूर और मुकुड आदिसे
शोभित कृषनिधान भगवान् गश्ड़वाहन पिष्णुने शिवजीसे
ऋहां--“दक्षिण समुद्रके किनारे नीरा चरते विभूषित जो दस
योजन विस्तृत क्षेत्र चित्रोत्पणा नदौसे लेकर समुद्रतक फैला
हुआ है; उसके उत्तर 'एक्राप्नवन” नामक सुन्दर षन है।
बहीं पार्यतीजीके साथ आप निवास करें । बहो सब लोर्कोफी
शटि करनेवाले ब्रक्माजी मेरे आदेशसे आपको छोटि छिड्ोंके
अधौश्वर पदपर अभिषिक्त करेंगे ।›
भगवान् विध्णुके ऐसा कइनेपर शिषजीने क्टा--