भ्रतिसर्गपर्व, द्वितीय खण्ड ]
* ब्रोपदेवके चरित्र-प्रसंगमें श्रीमदभागवते-माहात्प्य *
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अर्थात् उस मानस तीर्थम अवगाहन करनेपर सभी तीरथोका
फल प्राप्त हो जाता है । यह महान् मानस-ज्ञान-तीर्थ ब्रह्मके
साक्षात्कार करानेमे समर्थ है! फणिने ! मैंने यह सर्वोत्तम तीर्थ
तुम्हें प्रदान किया है, इससे तुम कृतकृत्य हो जाओगे । यह
कहकर भगवान् रुद्र॒ अन्तर्हित हो गये और पाणिनि अपने
घरपर आ गये। पाणिनिने सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ और
लिड्रसूत्र-रूप व्याकरण शास्त्रका निर्माण कर परम निर्वाण
प्राप्त किया। अतः भार्गवश्नेष्र तुम मनोमय ज्ञानतीर्थका
अवलम्बन करो । उन्हींसे कल्याणमयी सर्वोत्तम तीर्थमयी गङ्गा
प्रकट हुई हैं। गज़ासे बढ़कर उत्तम तीर्थ न कोई हुआ है और
न आगे होगा।
(अध्याय ३१)
जच
खोपदेवके चरित्र-प्रसंगमें श्रीमद्धागवत-माहात्म्य
सूतजी बोले--महामुने शौनक ! तोतादिमें एक
बोपदेव नामके ब्राह्मण रहते थे। वे कृष्णभक्त और
केद-वेदाङ्गपारेगत थे। उन्होंने गोप-गोपियोंसे प्रतिष्टित
युन्दावन-तीर्थमें जाकर देवाधिदेव जनार्दनकी आराधना की।
एक वर्ष बाद भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें अतिशय श्रेष्ठ
ज्ञान प्रदान किया। उसी ज्ञानके द्वारा उनके हृदयमें भागबती
कथाका उदय हुआ। जिस कथाको श्रीशुकदेवजीने बुद्धिमान्
राजा परीक्षितको सुनाया था, उस सनातनी मोक्ष-स्वरूपा
कथाका बोपदेवने हरि-लीलामृत नामसे पुनः वर्णन किया।
कथाकी समाप्तिपर जनार्दन भगवान् विष्णु प्रकर हुए और
बोले 'महामते ! वर माँगों।' बोपदेवने अतिशय स्लेहमयी
वाणीमें कहा--'भगवन् ! आपको नमस्कार है। आप सम्पूर्ण
संसारपर अनुग्रह करनेवाले हैं। आपसे देव, मनुष्य, पशु-पक्षी
सभी निर्मित हुए हैं। नरकसे दुःखी प्राणी भी इस कलियुगमें
आपके ही नामसे कृतार्थं होते हैं। महर्षि वेदव्यासरचित
श्रीमद्भागवतका ज्ञान तो आपने मुझे प्रदान किया है, पुनः यदि
आप वर प्रदान करना चाहते हैं तो उस भागवतका माहात्य
मुझसे कहें ।'
श्रीभगवान् ओले--ओपटेव ! एक समय भगवान्
शंकर पार्वतीके साथ दम्भ और पाखण्डसे युक्त बौद्धकि राज्य
पराप्त होनेपर काशीमें उत्तम भूमि देखकर वहाँ स्थित हो गये ।
भगवान् शैकरने आनन्दपूर्वक प्रणाम करते हुए कहा--'हे
सच्चिदानन्द ! हे विभो! हे जगत्को आनन्द प्रदान
करनेवाले ! आपकी जय हो ।' इस प्रकारकी वाणी सुनकर
पार्वतीने भगवान् शैकरसे पूछा--“भगवन् ! आपके समान
दूसरा अन्य देवता कौन है जिसे आपने प्रणाम किया ।' इसपर
भगवान् शिवने कहा--'महादेवि ! यह काशी परम पवित्र
क्षेत्र है, यह स्वयं सनातन ब्रह्मस्वरूप है, यह प्रणाम करने
योग्य है। यहाँ मैं सप्ताह-यज्ञ (भागवत-सप्ताह-यज्ञ)
करूँगा।' उस यज्ञ-स्थलकी रक्षाके लिये भगवान् शंकरे
चण्डीश, गणेश, नन्दी तथा गुद्ाकोंको स्थापित किया और
स्वये ध्यानमें स्थित होकर माता पार्वतीसे सात दिनतक
भागवती कथा कहते रहे | आठवें दिन पार्वतीको सोते देखकर
उन्होंने पूछा कि “तुमने कितनी कथा सुनी ।' उन्होंने कहा--
“देव ! मैंने अमृत- मन्थनपर्यन्त विष्णुचरित्रका श्रवण किया ।'
इसी कथाको वहीं वृक्षके कोटरमें स्थित शुकरूपी शुकदेव सुन
रहे थे। अमृत-कथाके श्रवणसे वे अमर हो गये। मेरी इस
आज्ञासे वह शुक साक्षात् तुम्हारे हृदयमें स्थित है। वोपदेव !
तुमने इस दुर्लभ भागवत-माहात्म्यको मेरे द्वारा प्राप्त किया है।
अब तुम जाकर राजा विक्रमके पिता गन्धर्वसेनको नर्मदाके
तटपर इसे सुनाओ । हरि-माहात्यका दान करना सभी दानोंमें
उत्तम दान है। इसे विष्णुभक्त बुद्धिमान् सत्पात्रकों ही सुनाना
चाहिये। भूखेको अन्न-दान करना भी इसके समान दान नहीं
है ¦ यह कहकर भगवान् श्रीहरि अन्तर्हित हो गये और बोपदेव
बहुत प्रसन्न हो गये।
(अध्याय ३२)
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गणष्ठरे तधैव च।
सिर्कान्गाप्तकान् ॥
१-सूत्पाठे धातुफठे
लिङ्स तथा कृत्वा पं
(परतिसपर्वं २। ३१ । १३-१४)