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+ रुद्रसैहिता +

२९९

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देखी दिवा सस्वियोंसे घिरी हुई जेदीपर बैठी

हैं और चद्रमाकी विशुद्ध कल्ल-स्री प्रतीत

होती हैं। ग्रह्मधारीका स्वरूप धारण किये

भक्तवरत्सल सम्भ पार्वतीदेयीको देखकर

प्रीतिपूर्वकं उनके पास गये । उन अद्भुत

तेजस्वी ब्राह्मणदेवताको आया देख उस

समय देवी दिवाने समस्त पूजन-सामग्रियों-

द्वारा उनकी पूजा की। जब उनका

अलछीभाँति सत्कार हो गया, सामपग्रियोंद्वारा

उनकी पजा स्रम्पन्न कर ली गयी, तब

पार्वतीने बड़ी प्रसन्नता और प्रेयके साथ उन

ब्राह्मणदेवसे आदरपूर्वक कुशल-समाचार

न पार्वती ओलॉं--ब्रह्मचारीका स्वरूप

धारण करके आये हुए आप कौन हैं और

कहाँसे पारे हैं? वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ

विप्रबर ) आप अपने तेजसे इस चनक्र

ग्रकाजित कर रहे हैं। मैंने जो कुछ पूछा है,

परोपकारी हुँ--इसमें संदाय नहीं है। तुप

कौन हो ? किसकी पुत्री हो और इस निर्जन

चनमे किसाछिश्रे ऐसी तपस्या कर रही हो,

जो पंजेके बलपर खड़े हो तप करनेवाले

मुनियोके लिये भी दुर्लभ है। तुम न

खालिका हो, न दृद्धा ही हो, सुन्दरी तरुणी

जान पड़ती हो । फिर किसलिये पत्तिके चिना

इस कने आकर कठोर तपस्या करती हे >

भद्रे ! क्या तुम किसी तपरस्वीकी सहचारिणी

तपस्विनी हो ? देवि } क्या वहे तपस्वी

तुम्हारा पारूकन-पोषण नहीं करता, जो तुम्हें

छोड़कर अन्यत्रे चला गया है ? बोस्म, तुम

सं जिर प० { मोटा टाइप ) १०-~

किसके कुछमें उत्पन्न हुई हो ? तुम्हारे पिता

कौन हैं और तुम्हारा नाम च्या है? तुप

महासौधास्यरूपा जान पड़ती हो। तुम्हारा

तपस्थामें अनुराग व्यर्थ है। क्या तुम

खेदमाला गायत्री हो, छश्मी हो अथवा क्या

सुन्दर रूपवाली सरस्वती हो ? इन तीनोंमें

तुम कौम हो-- यह मै अनुमानसे निश्चय नहीं

कर पाता ।

पार्वती गोखी-विष्रधर ! न तो मैं

वेदमाता गायत्री हूँ, न लक्ष्मी हैँ और न

सरस्वती ही हूँ। इस समय मैं हिमाचलकी

पुत्री हूँ और मेरा नाम पार्यती है। पूर्वकालमें

इससे पहलेके जन्पमे यैं प्रजापति दक्षक्ती

पुत्री थी । उस समय मेरा नाप सती था । एक

दिन पिताने मेरे पतिकी निन्दा की थी,

जिससे कुपित हो मैंने योगक्के द्वारा झरीरको

त्याग दिया था) इस जन्पमें भी भगवान्‌

शिव मुझे मि गये थे, परंतु भाग्यवश

कापको भस्म करके चे सुझे भी छोड़कर

चले गये । त्यन्‌ ! संकरजीके चले जानेपर

मैं विरहतापसे उद्विम हो उदी और तपस्याके

स्ये दृष निश्चय करके पिताके घरसे यहाँ

गङ्गाजीके तख्पर चली आयी । यहाँ वीर्घ-

कालतक कठोर तपस्या करके भी मैं अपने

प्राणवल्लभको न पा स्रक्की। इसलिये

अत्रिे प्रयेश्ा कर जाना चाहती धी । इतनेपें

ही आपको आया देख मैं श्षणभरके लिये

ठहर गयी। अब आप जाइये। पै अभ्रिमें

प्रये करूँगी; क्योंकि भगवान्‌ झिखने मुझे

स्वीकार नहीं किया ! किंतु जहाँ-जहाँ रै जन्म

रूँगी, बहाँ-जहाँ शिव्षका ही पतिरूपमें वरण

करूँगी।

ब्रह्माजी कहते हैं--नारद ! ऐसा

कहकर पार्वती उन ब्राह्मणे-देयताके सामने

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