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» संक्षिप्त श्रीवराहपुराण *
[ अध्याय १०
संसारकी सत्ता रहती है। उनके अपने निर्गुण- | उत्पन्न होनेपर जगत्की सृष्टि पुनः प्रारम्भ हो
निराकार रूपमें स्थित हो जानेपर संसारका | जाती है।
प्रलय हो जाता है और उनमें इच्छारूप विक्रिया
[अध्याय ९]
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राजा दुर्जयके चरित्र-वर्णनके प्रसङ्गे मुनिवर गौरमुखके
आश्रमकी शोभाका वर्णन
सत्ययुगकी बात है। सुप्रतीक नामसे प्रसिद्ध
एक महान् पराक्रमी राजा थे। उनकी दो रानियाँ
थीं। वे दोनों परम मनोरम रानियाँ किसी बाते
एक-दूसरीसे कम न थीं। उनमें एकका नाम
विद्युत्रभा और दूसरीका कान्तिमती था। दो
रानियोंके होते हुए भी उन शक्तिशाली नेशको
किसी संतानकी प्राप्ति न हुईं । तब राजा सुप्रतीक
पर्वतोंमें श्रेष्ठ चित्रकूट पर्वतपर गये । वहाँ जाकर
उन्होंने सर्वथा निष्पाप अत्रिनन्दन दुर्वासाकी
विधिपूर्वक आराधना कौ। वरप्राप्तिकौ इच्छा
रखनेवाले राजा सुप्रतीकके बहुत समयतक यत्रपूर्वक
सेवा करनेपर वे ऋषि प्रसन हो गये। राजाको
वर देनेके लिये उद्यत होकर वे मुनिवर कुछ कह
ही रहे थे, तबतक ऐरावत हाथीपर चदे हुए
देवराज इन्द्र वहाँ पहुँच गये। वे चारों ओर
देवसेनासे घिरे हुए थे। वे वहाँ आकर चुपचाप
खड़े हो गये। महर्षि दुर्वासा देवराज इन्द्रके प्रति
स्नेह रखते थे; किंतु इन्द्रको अपने प्रति प्रीतिका
प्रदर्शन न करते देखकर वे क्रुद्ध हो उठे ओर उन
अत्रिनन्दनने देवराज इन्द्रको अत्यन्त कठोर शाप
दे दिया -* अरे मूर्ख देवराज! तुमने मेरा जो
अपमान किया है, इसके फलस्वरूप तुर अपने
राज्यसे च्युत हो दूसरे लोकमें जाकर निवास
करना होगा।' देवेन्द्रे इस प्रकार कहकर उन
क्रुद्ध मुनिने राजा सुप्रतीकसे कहा--' राजन्! तुम्हें
प्रभाव और तत्त्वको भली भौति जाननेवाला होगा।
उसके कर्म क्रूर होंगे । वह सदैव शस्त्रोंसे सनद्ध
रहेगा और वह परम शक्तिशाली बालक राजा
दुर्जयके नामसे प्रसिद्ध होगा ।'
इस प्रकार वर देकर मुनिवर दुर्वासा अन्यत्र
चले गये। राजा सुप्रतीक भी अपने राज्यको
वापस लौट आये। धर्मज्ञ राजाने अपनी रानी
विद्युत्रभाके उदरमें गर्भाधान किया। रानीके
समय आनेपर प्रसव हुआ। उस महाबली पुत्रकी
दुर्जय नामसे प्रसिद्धि हई । उसके जन्मके अवसरपर
दुर्वासा मुनि पधे और उन्होंने स्वयं उस
बालकके जातकर्म आदि संस्कार किये। साथ ही
उन महर्षिने अपने तपोबलसे उस बालकके
स्वभावको भी सौप्य बना दिया तथा उसको
वेदशास्त्रोंका पारगामी विद्वान्, धर्मात्मा एवं परम-
पवित्र बना दिया।
राजा सुप्रतीककी जो दूसरी सौभाग्यवती
पत्नी थी, जिसका नाम कान्तिमती था, उसके भी
सुद्युम्न नामक एक पुत्र हुआ। वह भी वेद ओर
वेदाङ्गका पूर्ण विद्वान् हुआ। भामिनि! महाराज
सुप्रतीककी राजधानी वाराणसीमें थी। एक बार
उनका पुत्र दुर्जय पासमें बैठा हुआ था। उस समय
उसे परम योग्य देखकर तथा अपनी वृद्धावस्थापर
दृष्टिपात करके राजा उसे हौ राज्य सौंप देनेका
विचार करने लगे। फिर भलीभाँति विचार
एक अत्यन्त बलवान् पुत्र प्राप्त होगा। वह इन्द्रके करके उन धर्मात्मा नेशने अपना राज्य राजकुमार
समान रूपवान्, श्रीसम्पनन, महाप्रतापी, विद्याके | दुर्जबकों सौंप दिया और वे स्वयं चित्रकूट नामक