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२८ ] [ ब्रह्माण्ड पुराण

देशं पुण्यमभीप्सतो. विभुना बद्धितेषिणा ।

सुनाभं दिव्यरूपां सप्तांगं शुभशंसनम्‌ ।। १५६

आनौ पम्ययिदं चक्रः वत्तं मानमतंद्विताः। "

पृष्ठतो यात नियतास्ततः प्राप्स्यथ .पाटितम्‌ ।। १५७. + क,

गच्छतस्तस्य चक्रस्य यत्र नेमिविशीयेते । ।

पण्यः स देशो मंतव्यः प्रत्युवाच तदा प्रभुः ।!१५५

उक्त्वा चैवम षीन्सर्वान ट श्यत्वमुपागसत्तु ।

गंगा गभे यवाहारा नैमिषेयास्तथेव. च ।\ १५६

ईशिरे चैव सत्रेथ मनयो संभिघे तदा ॥ १६७

मृते शरद्रति तथा. तस्य. चोत्थापनं कतम्‌ ।

ऋषयो नैमिषेयाश्च दयया परया युताः ॥ १६१.

प्रयोग में प्रह्वला नहीं है जँसा कि स्वयभ्भ्रुने देखा है । धर्म की

भाकांक्षा रखने वाले उन विशिष्ट मुंनियों ने पूछा था ।१५५। जो कि पुण्य

देण की इच्छा रखने वाले थे ओर ` विभु उनके हितः की इच्छा रखने वाले

थे । सुनाम-दिग्यरूप ओर राभा से गक्त-सात अचलं वाला जौरं शुभ को

बताने वाला था । ६५६। यह उपमा से रहित वर्तमान चक्र था | पीछे से

अतन्द्रितं होकर नियत वे गमन करे फिर वाटित को प्राप्त हो जायेंगे । १५७।

गमन करते हुए उस चक्र की जक्ष पर ही नेनि विशीर्ण हो जाती है--स

समयः मे श्रध ने यही उत्तर दिया चाकि उसी देण को पुण्यमत. मानना

चाहिए १४७ इस रीति.से उन-सब ऋषियों सेः कहकर ` वे अदृश्य हो गेये'

थे । गङ्गा केगं में केसे मिवेय यवों का आहार करने ` वाले रहैः ये । १४५६

उस समय में नैमिषे मुनियों ने सव के द्वार ख्यांसनोा कयि चीं ।र९द०)

णरद्वान्‌ के समाप्त ही जाने परं उसका उत्पादन किया था । वे ते सिषेय ऋषि

ग॑त परमाधिक दया से समन्वितः थे १६१ ६ ः

निःसीमां गाभिमां कृत्वा कृष्णं राजानमाहरत्‌ ।

प्रीति चैव कृतातिथ्यं राजनं विधिवत्तदा ।१६२.

अंत: सर्गगतः क.रः रुवर्भानुरसुरो हस्त्र । -

दते राजनि राजानु मद्रे मुनयस्ततः ॥। १६३

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