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२४ ऋग्वेद संहिता भाग-१

[ सूक्त - २२ ]

[ऋषि-मेधातिथि काण्व । देवता-१-४ अश्विनी कुमार, ५-८ सविता, ९-१० अग्नि, ११ देवियाँ,

१२-इन्द्राणी, वरुणानी, अनाय, १३-१४ दावा - पृथिवी, १५ पृथिवी, १६ विष्णु अथवा देवगण, १७-२१

विष्णु । छन्द - गायत्री ।]

२०९. प्रातर्युजा वि बोधयाश्विनावेह गच्छताम्‌। अस्य सोमस्य पीतये ॥१ ॥

(है अध्वर्युगण !) प्रातःकाल चेतनता को प्राप्त होने वाले अश्विनीकुपारों को जगायें । वे हमारे इस यज्ञ में

सोमपान करने के निमित्त पधारें ॥१ ॥

२१०, या सुरथा रथीतमोभा देवा दिविस्पृशा। अश्विना ता हवामहे ॥२ ॥

ये दोनों अश्विनीकुमार सुसज्जित रथो से युक्त महान्‌ रथौ हैं। ये आकाश में गमन करते हैं। इन दोनों का

हम आवाहन करते हैं ॥२ ॥

[यहाँ मंत्रश्क्ति से चालित आकाश पा से चलने वाले यान (रथो) का उल्लेख किया गया है ॥]

२११. या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती । तया यज्ञं मिमिक्षतम्‌ ॥३ ॥

है अश्विनीकुमारों आपकी जो मधुर सत्यवचन युक्त कशा (चाबुक-वाणी) है, उससे यज्ञ को सिचित

करने की कृपा करें ॥ ३ ॥

[वाणी रूपी चाबुक से स्पष्ट होता है कि अश्विनी देवों के यान पंत्र चालित हैं । पथुर एवं सत्यवचन रूप कचनों से यज्ञ का

धी सिंचन किया जाता है । कशा - चाधुक से यज्ञ के सिंचन का घाव अटपटा लगते हुए घी युक्ति संगत है । ]

२१२. नहि वामस्ति दूरके यत्रा रथेन गच्छथ:। अश्विना सोमिनो गृहम्‌ ॥४ ॥

है अश्विनीकुमाते ! आप रथ पर आरूढ़ होकर जिस मार्ग से जाते हैं, वहाँ से सोमयाग करने वाते याजक

का घर दूर नहीं है ॥४ ॥

[पूर्वोक्त मंत्र में वर्णित यान के नत्र वेग का वर्णन है । ]

२१३. हिरण्यपाणिमूतये सवितारमुप हये । स चेत्ता देवता पदम्‌ ॥५ ॥

यजमान को (प्रकाश -ऊर्जा आदि) देने वाले हिरण्यगर्भ (हाथ मे सुवर्ण धारण करने वाले या सुनहरी किरणों

वाले) सवितादेव का हष अपनी रक्षा के लिये आवाहन करते हैं । वे ही यजमान के द्रार प्राप्तव्य (गन्तव्य) स्थान

को विज्ञापित (प्रकाशित) करने वाले हैं ॥५ ॥

२१४. अपां नपातमवसे सवितारमुप स्तुहि । तस्य व्रतान्युश्पसि ॥६ ॥

हे ऋत्विज्‌ | आप हमारी रक्षा के लिये सवितादेवता कौ स्तुति करें हम उनके लिए सोपयागादि कर्म सम्पन्न

करना चाहते है । वे सविताटेव जलो को सुखाकर पुनः सहस्रो गुना बरसाने वाले हैं ॥६ ॥

[सौर शक्ति से ही जल के शोधन, वर्षण एवं शोषण की प्रक्रिया चलाने की वात विज्ञान सप्पत है ।]

२१५. विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस:। सवितारं नृचक्षसम्‌ ॥७ ॥

समस्त प्राणियों के आश्रयभूत, विविध धनो के प्रदाता, मानवपात्र के प्रकाशक सूर्यदेव का हम आवाहन

करते हैं ॥७ ॥

२१६. सखाय आ नि षीदत सविता स्तोम्यो नु नः। दाता राधांसि शुम्भति ॥८ ॥

हे मित्रो हम सब बैठकर सवितादेव की स्तुति करें । धन-ऐश्वर्य के दाता सूर्यदेव अत्यन्त शो धावमान है ॥८ ॥

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