र४ अथर्ववेद संहिता धाय-१
[ ३५. दीर्घायुप्राष्ति सूक्त ]
[ऋषि - अथर्वा । देवता - हिरण्य इद्धाग्नी या विश्वेदेवा छन्द - जगता, ४ अनुष्टप्गर्भा चतुष्पदा त्रिष्टप् । ]
१५०. यदाबध्नन् दाक्षायणा हिरण्यं शतानीकाय सुमनस्यमानाः ।
तत् ते बध्नाप्यायुषे वर्चसे बलाय दीर्घायुत्वाय शतशारदाय ॥१ ॥
है आयु कौ कामना के वाले मनुष्य ! श्रेष्ठ विचार वाले दक्षगोत्रोय महर्षियों ने 'शतानीक राजा' को जो
हर्ष प्रदायक सुवर्ण बाँधा था । उसी सुवर्णं को हम, आपके आयु वृद्धि के लिए, तेज और सामर्थ्य को प्राप्ति के
लिए तथा सौ वर्ष की दीर्घ आयु प्राप्त कराने के लिए आपको बाँघते हैं ॥१ ॥
१५१. नैनं रक्षांसि न पिशाचाः सहन्ते देवानामोजः प्रथमजं हो३तत्।
यो बिभर्ति दाक्षायणं हिरण्यं स जीवेषु कृणुते दीर्घमायुः ॥२॥
सुवर्णं धारण करने वाले मनुष्य को ज्वर आदि रोग कष्ट नहीं पहुँचाते । मांस का भक्षण करने वाले असुर
उसको पोड़ित नहों कर सकते, क्योंकि यह हिरण्य इब्द्रादि देवो से पूर्व ही उत्पन्न हुआ है । जो व्यक्ति दाक्षायण
सुवर्ण धारण करते हैं, वे सभी दीर्घं आयु प्राप्त करते हैं ॥२ ॥
१५२. अपां तेजो ज्योतिरोजो बलं च वनस्यतीनामुत वीर्याणि ।
इन्द्रइवेन्द्रियाण्यधि धारयामो अस्मिन् तद् दक्षमाणो बिभरद्धिरण्यम् ॥३ ॥
हम इस मनुष्य में जल का ओजस् , तेजस्, शक्ति, सामर्थ्य तथा वनस्पतियों के समस्त वीर्य स्थापित करते
हैं, जिस प्रकार इन्र से सम्बन्धित बल इन्द्र के अन्दर विद्यमान रहता है, उसी प्रकार हम उक्त गुणों को इस व्यक्ति
में स्थापित करते है । अत: बलवृद्धि की कामना करने वाले मनुष्य स्वर्ण धारण करें ॥३ ॥
१५३. समानां मासामृतुभिष्टवा वयं संवत्सरस्य पयसा पिपर्मि ।
इन्द्राग्नी विश्च देवास्तेऽनु मन्यन्तामहणीयमानाः ॥४ ॥
हे समस्त धन की कामना करने वाले मनुष्य ! हम आपको समान मास वाली ऋतुओं तथा संवत्सः पर्यन्त
रहने वाले गौ दुग्ध से परिपूर्ण करते हैं । इन्द्र, अग्नि तथा अन्य समस्त देव आपकी गलतियों से क्रोधित म होकर
स्वर्ण धारण करने से प्राप्त फल की अनुमति प्रदान करें ॥४ ॥
॥ इति प्रथमं काण्डं समाप्तम्॥
न्न