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र्पहापुराणम्
उस सतयुग का चार सौ वर्ष का सन्ध्या काल है और | तस्याने सर्वसत्यानां हेतौ प्रकृतौ लयः।
उतना हो सम्ध्यांश। क्रमशः वह सन्ध्या तोन सौ, दो सौ | तेनायं परोच्यते सद्धिः प्रकृतः प्रतिम॑चरः॥ २०॥
और एक सौ वर्षो को होतो है।
अंशक षट्शतं त्मात्कृतसख्यांशकैर्विना।
त्रिदव्येकधा च महस्रं विना सख्यांशकेन तु॥ १२॥
त्रेताद्वापरतिष्याणां कालज्ञाने प्रकीर्तितप्।
एतद्ड्वादशसाहस्त्रं साधिकं परिकल्पितम् १३॥
उससे सत्ययुग का सन्ध्यांश छोड़कर अन्य सन्ध्यांश
काल कुल छह सौ वर्ष का धा। सन्ध्यांश के बिना दो एवं
एक सहस्र वर्ष त्रेता, द्वापर तथा कलि के कालज्ञान में
परिकौतित हुआ है। यहौ बारह हजार वर्ष अधिक
परिकल्पित है ।
तदेकसप्ततिगु्ण यनोरन्तरमुच्यते।
ब्रह्मणो दिवमे विप्रा पनव्ध्च चतुर्श॥ १४॥
उसका सात गुना अर्थात् इकहत्तर दिव्य युगों का एक
मन्वन्तर होता है। हे विप्रगण! ब्रह्मा के एक दिन में चौदह
मन्वन्तर माने जाते हैं।
स्वायप्भुवादयः सर्वे ततः सावर्णिकादयः।
तैरियं पिव सर्वा सकमद्टीपा सपर्वता॥। १५॥
पूर्ण युगसहस्रं वै परिपाल्या नरेश्वौ:।
प्यन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तराणि वै॥ १६॥
व्याख्यातानि न सदेहः कल्पे कल्ये न चैव हि।
वराह्मपेकपहः कल्पर्तायती राज़िरिष्यते॥ १७॥
स्वायंभुव आदि सभी मनु. तदनन्तर सावर्णिक आदि
गजाओं द्वारा सष द्वीपों वाला पर्वत सहित यह सात पूर्ण
थिवौ पूरे सहस्र युगपर्यत परिपालित होतो है। एक
मन्वन्तर द्वारा कल्प कल्प में सभी मन्वन्तर व्याख्यात होते
हैं, इसमें सदह नहीं। ब्रह्मा का एक दिन एक कल्प होता है
और उतने हो परिमाण को एक रात्रि मानौ गईं है।
चु्ुगसह्ं तु कल्पमाहर्मनीपिणः।
ब्रोणि कह्पज्ञतानि स्युस्तथा षषिदिजोत्तपाः॥ १८॥
बरह्मणो वत्सरस्तस्तौः कथितो वै द्विजोत्तमा:।
स च कालः शतगुणः परां चैव तद्विदु:॥१९॥
विद्वानों ने एक हजार चतुयुंग को एक कत्य कहा है। हे
द्विनगण ! उसी प्रकार तीन सौ साठ कल्प पूरे होते हैं, तब
काल विशेष्यो ने उसे ब्रह्मा का एक वर्ष कहा है। बही
परिमाण काल सौ गुना होने पर परार्धं कहा जाता है ।
उसके अन्तं में सभी प्राणियों को उत्पत्ति कौ हेतुभूता
प्रकृति में लय हो जाता है। इसलिए सघनं द्वारा इसे प्रकृत
प्रतिसंचर कहा जाता है।
्रह्नारायणेशानां याणां प्रकृतौ तवः।
प्रोच्यते कालयोगेन पुनरेव च स्ष्भवः॥ २१॥
रह्मा, नारायण और महेश- इन तीनों का प्रकृति में लय
हो जाता है और समय आने पर पुनः उनका जन्म कहा
जाता है।
एवं ब्रह्मा च भूतानि वासुदेवोऽपि शङ्करः।
कालेनैव तु सृज्यते स एव त्रसते एुनः॥२२॥
इस प्रकार ब्रह्मा, समस्त भूत्, वासुदेव और शंकर- ये
सभी कालयोग से सृष्टि और संहार को प्राप्त करते हैं।
अनादिरेष भगवान् कालोऽननोऽजरोऽमरः।
सर्वगत्वात्स्ततखत्वास्सर्वात्पत्वाग्महेश्वर:॥ २३॥
यहौ अनादि कालरूप भावान् अनन्त, अजर, अमर,
सर्वगामी, स्वतन्त्र और सर्वात्मा होने के कारण महेधर रै ।
वरह्नाणो वहवो रुद्रा हन्ये नारायणादयः।
एको हि भगवानीशः काल: कविरिति ब्रुति:॥ २ ४॥
अनेक ब्रह्मा, अनेक रुद ओर नारायण आदि भौ अनेक
है, केवल कालस्वकूप, सर्वच, भगवान् ईश हो एक हैं, ऐसो
श्रुति है।
एकमत्र व्यतीतं तु पराध बरह्मणो द्िजाः।
साष््रतं वत्ति त्वद्धं तस्य कल्पोऽयपय्रजः॥ २५॥
है द्विजो ! यहाँ ब्रह्म का एक परार्धं बोत चुका है। सम्प्रति
दूसरा परार्धं चल रहा है यो उसका यह अग्रन कल्य है।
योऽतीतः सोऽत्तिपः कल्यः पाटा त्युच्यते दुधै:।
वागाहो वत्ति कल्पस्तस्य वक्ष्यामि विस्तरम्॥ २६॥
जो अतीत (बीता हुआ) है, उसे ही विद्वानों ने अन्तिम
पाग कल्य कहा है। सम्प्रति वाराह कल्प चल रहा है, उसे
विस्तारपूर्वक कहँगा।
इति श्रोकूर्पपुराणे पूर्वभागें कालसंख्याकथर्न नाप
पञ्पोऽध्यायः॥ ५॥