उठी। दुर्योधन बड़ी खोटी बुद्धिका मनुष्य
उसने लाक्षाके बने हुए घरमें पाण्डर्वोको रखकर
आग लगाकर उन्हें जलानेका प्रयल किया; किंतु
पाँचों पाण्डव अपनी माताके साथ उस जलते हुए
घरसे बाहर निकल गये। वहाँसे एकचक्रा नगरीमें
जाकर वे मुनिके वेष एक ब्राह्मणके घरमें
निवास करने लगे। फिर बक नामक राक्षसका
वध करके वे पाञ्चाल-राग्यरमे, जहाँ द्रौपदीका
स्वयंवर होनेवाला था, गये। वहाँ अर्जुनके
बाहुबलसे मत्स्यभेद होनेपर पाँचों पाण्डबॉने
द्रौपदीको पत्नीरूपं प्राप्त किया। तत्पश्चात् दुर्योधन
आदिको उनके जीवित होनेका पता चलनेपर
उन्होंने कौरवोंसे अपना आधा राज्य भी प्राप्त कर
लिया। अर्जुनने अग्निदेवसे दिव्य गाण्डीव धनुष
और उत्तम रथ प्राप्त किया था। उन्हें युद्धमें भगवान्
कृष्ण-जैसे सारथि मिले थे तथा उन्होंने आचार्य
द्रोणसे ब्रह्मास्र आदि दिव्य आयुध और कभी नष्ट
न होनेवाले बाण प्राप्त किये थे। सभी पाण्डव
सब प्रकारकी विद्याओंमें प्रवीण थे॥९-१६॥
पाण्डुकुमार अर्जुनने श्रीकृष्णके साथ खाण्डब-
बनमें इन्द्रके द्वारा की हुई वृष्टिका अपने बाणोंकी
[ छत्राकार्] बाँधसे निवारण करते हुए अग्निको
तृप्त किया धा। पाण्डवोनि सम्पूर्ण दिशाओंपर
विजय पायी। युधिष्ठिर राज्य करने लगे। उन्होने
प्रचुर सुवर्णराशिसे परिपूर्णं राजसुय यज्ञका अनुष्ठान
किया। उनका यह वैभव दुर्योधनके लिये असह्य
हो उठा। उसने अपने भाई दुःशासन ओर
वैभवप्राप्त सुहद् कर्णके कहनेसे शकुनिको साथ
ले, द्यूत-सभामें जूएमें प्रवृत्त होकर, युधिष्ठिर
और उनके राज्यको कपर -द्यूतके द्वारा हँसते-
हँसते जीत लिया। जूएमें परास्त होकर युधिष्ठिर
अपने भाइयोंके साथ वनमें चले गये । वहां उन्होंने
किये। वे वने भी पहलेहीकी भाँति प्रतिदिन
बहुसंख्यक ब्राह्मणोंको भोजन कराते थे। [एक
दिन उन्होंने] अठासी हजार द्विजोंसहित दुर्वासाको
[ श्रीकृष्ण-कृपासे] परितृप्त किया। वहाँ उनके
साथ उनकी पत्री द्रौपदी तथा पुरोहित धौम्यजी
भी थे। बारहवाँ वर्ष बीतनेपर वे विराटनगरे
गये। वहाँ युधिष्ठिर सबसे अपरिचित रहकर
"कङ्क" नामक ब्राह्मणके रूपमे रहने लगे। भीमसेन
रसोइया बने थे। अर्जुनने अपना नाम “बृहन्नला'
रखा था। पाण्डवपत्ली द्रौपदी रनिवासमें सैरन्श्रीके
रूपमें रहने लगी। इसी प्रकार नकुल-सहदेवने भी
अपने नाम बदल लिये थे। भीमसेनने रात्रिकालमें
द्रौपदीका सतीत्व-हरण करनेकी इच्छा रखनेवाले
कौचकको मार डाला। तत्पश्चात् कौरव विराटकी
गौओंको हरकर ले जाने लगे, तब उन्हें अर्जुनने
परास्त किया। उस समय कौस्बोने पाण्डबोंकों पहचान
लिया। श्रीकृष्णकी बहिन सुभद्वाने अर्जुनसे अभिमन्यु
नामक पुत्रको उत्पन्न किया था। उसे राजा विराटने
अपनी कन्या उत्तरा व्याह दी ॥ १७-२५॥
धर्मराज युधिष्ठिर सात अक्षौहिणी सेनाके
स्वामी होकर कौरवोंके साथ युद्ध करनेको तैयार
हुए। पहले भगवान् श्रीकृष्ण परम क्रोधी दुर्योधनके
पास दूत बनकर गये । उन्होंने ग्यारह अक्षौहिणी
सेनाके स्वामी राजा दुर्योधनसे कहा -' राजन्!
तुम युधिष्ठिरको आधा राज्य दे दो या उन्हें पाँच
ही गाँव अर्पित कर दो; नहीं तो उनके साथ युद्ध
करो ।' श्रीकृष्णकौ बात सुनकर दुर्योधनने कहा--
“मैं उन्हें सुईकी नोकके बराबर भूमि भी नहीं
दूँगा; हाँ, उनसे युद्ध अवश्य करूँगा।' ऐसा
कहकर वह भगवान् श्रीकृष्णको बंदी बनानेके
लिये उद्यत हौ गया। उस समय राजसभामें
भगवान् श्रीकृष्णने अपने परम दुर्धर्षं विश्वरूपका
अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार बारह वर्ष व्यतीत | दर्शन कराकर दुर्योधनको भयभीत कर दिया ।