अध्याय १३७ ]
* यराहक्षेत्रकी महिमाके प्रसड्रमें गीध और शृगालका वृत्तान्त *
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भगवान् वराह बोले-देवि! ऐसे तो मेरे
सभी क्षेत्र परम शुद्ध हैं; फिर भी “कोकामुख',
*कुब्जाम्रक' तथा 'सौकरव'-स्थान (बराहक्षेत्र)
क्रमशः उत्तरोत्तर उत्तम माने जाते हैं; क्योकि इनमें
सम्पूर्ण प्राणियोंकों संसारसे मुक्त करनेके लिये
अपार शक्ति है। देवि! भागीरथी गङ्गाके समीप
यह वही स्थान है, जहाँ मैंने तुम्हें समुद्रसे
निकालकर स्थापित किया है।
पृथ्वी बोली--प्रभो! 'सौकरव'में मरनेवाले
प्राणी किन लोकोंको प्राप्त होते हैं तथा वहाँ
स्नान करने एवं उस तीर्थक जलके पान करनेवालेको
कौन-सा पुण्य प्राप्त होता है? कमलनयन!
आपके उस वराहक्षेत्रमें कितने क्षेत्र हैं? आप यह
सब मुझे बतानेकी कृपा कीजिये।
भगवान् वराह कहते हैं--महाभागे! वराहक्षेत्रके
दर्शन-अभिगमन आदिसे श्रेष्ठ पुण्य तो प्राप्त ही
होता है, साथ ही उस तीर्थमें जिनकी मृत्यु होती
है, उनके पूर्वके दस तथा आगे आनेवाली पीढ़ीके
दस तथा (मातुल आदि कुलके) अन्य बारह
पुरुष स्वर्ममे चले जाते है । सुश्रोणि! वहाँ जाने
तथा मेरे ( श्रीविग्रहके) मुखका दर्शन करनेमात्रसे
सात जन्मोतक वह पुरुष विशाल धन-धान्यसे
परिपूर्ण श्रेष्ठ कुलमें उत्पन्न होता है, साथ ही वह
रूपवान्, गुणवान् तथा मेरा भक्त होता है। जो
मनुष्य वराहक्षेत्रमें अपने प्राणोंका त्याग करते हैं
वे उस तौर्थके प्रभावसे शरीर त्यागनेके पश्चात्
शङ्ख, चक्र और गदा आदि आयुधोंसे विभूषित
चतुर्भुजरूप धारणकर श्वेतद्वीपको प्राप्त होते हैं।
वसुंधरे ! इसके अन्तर्गत “चक्रतीर्थ” नामका एक
प्रतिष्ठित क्षेत्र है, जिसमें व्यक्ति इन्द्रियोंपर संयम
रखते हुए नियमानुकूल भोजन और वैशाखमासकी
द्वादशौ तिथिको विधिपूर्वक स्नानकर ग्यारह
हजार वर्षोंतक विख्यात कुलमें जन्म पाकर प्रभूत
धन-धान्यसे सम्पन्न रहकर मेरी परिचवमिं परायण
रहता है।
पृथ्वी बोली-- भगवन्! सुना जाता है कि इस
वराहतीर्थमें चन्द्रमाने भी आपकी उपासना की
थी, जो बड़े कौतृहलका विषय है। अत: आप
इसे विस्तारपूर्वक बतानेकी कृपा करें।
भगवान् वराह बोले-- देवि! चन्द्रमा मुझे
स्वभावतया ही प्रिय हैं; अतः तप करनेके बाद
मैंने उन्हें अपना देवदुर्लभ दर्शन दिया। पर मेरे
उस स्वरूपको देखकर वे अपनेको संभाल न
सके ओर अचेत हो गये। मेरे तेजसे वे ऐसे
मोहित हो गये कि मुझे देखनेकी भी उनमें शक्ति
न रही। उन्होंने आँखें बंद कर लीं और
घबराहटके कारण तस्त-नेत्र होकर कुछ भी बोल
न पाये। इसपर मैंने उनसे धीरेसे कहा-' परम
तपस्वी सोम! तुम किस उद्देश्यसे तप कर रहे
हो? तुम्हारे मनमें जो बात हो, वह मुझसे
बताओ। मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, अतः तुम्हें सब कुछ
प्राप्त हों जायगा-इसमें कोई संशय नहीं।'
इसपर “सोमतीर्थ' में स्थित होकर चन्द्रमाने
कहा--' भगवन्! आप योगियोंके स्वामी हैं और
संसारमें सबसे श्रेष्ठ हैं। आप यदि मुझपर प्रसन
हैं तो यहाँ निवास करनेकी कृपा कीजिये, साथ
ही मैं यह भी चाहता हूँ कि जबतक ये लोक रहें,
तबतक आपमें मेरी निश्वलरूपसे अतुल श्रद्धा
और भक्ति सदा बनी रहे। मेरा जो रूप है, वह
कभी आपसे रिक्त न हो और वह सातों द्वापोमें
सर्वत्र दिखायी पड़े। यज्ञोंमें ब्राह्मण-समुदाय मेरे
नामसे प्रसिद्ध सोमरसका पान करें। प्रभो! इसके
प्रभावसे उन्हें परम एवं दिव्य गति प्राप्त हो जाय।
अमावास्याको मुझमें क्षीणता आ जायगी, उसमें
पितरोकि लिये पिण्डकी क्रियां लाभकर होंगी,
पर पूर्णिमाको मैं पुनः नियमानुसार सुन्दर दर्शनीय