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अ* १९ ]

४ चतुर्थं श्कन्ध *

२३१

जक कैम नितिन निमे जेन नैम निमे मै नि मेनि मिते तिमि मेमि निमे जित जे निमे मि ते मै म जे मै मौ नै मै मैः मौ मै मै म मै

शीघतासे आकाशमार्गसे जा रहे थे कि उनपर भगवान्‌ पाखण्ड कहलाये । यहाँ 'खण्ड' शब्द चिद्धका वाचक

अत्रिकी दृष्टि पड़ गयी । उनके कहनेसे महाराज पृथुका

महारथी पुत्र इन्द्रकों मारनेके लिये उनके पीछे दौड़ा और

बड़े क्रोधसे बोला, 'अरे खड़ा रह! खड़ा रह

॥ १२-१३ ॥ इन्द्र सिरपर जटाजूट और शरीरम भस्म

धारण किये हुए थे। उनका ऐसा वेष देखकर पृथुकुमारने

उन्हें मूर्तिमान्‌ धर्म समझा, इसलिये उनपर बाण नहीं

छोड़ा ॥ १४ ॥ जब वह इन्द्रपर वार किये बिना ही लौट

आया, तब महर्षि अब्रिने पुनः उसे इन्द्रको मारनेके लिये

आज्ञा दी--“वत्स ! इस देवताधम इन्द्रने तुम्हारे यज्ञमें

विन्न डाला है, तुम इसे मार डालो' ॥ १५॥

अत्रि मुनिके इस प्रकार उत्साहित करनेपर पृथुकुमार

क्रोधे भर गया। इन्द्र बड़ी तेजीसे आकाशमें जा रहे थे ।

उनके पीछे वह इस प्रकार दौड़ा, जैसे रावणके पीछे

जटायु॥ १६ ॥ स्वर्गपति इन्द्र उसे पीछे आते देख, उस

येष और घोड़ेको छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये और वह

वीर अपना यज्ञपशु लेकर पिताकी यज्ञशालामें लौट

आया॥ १७॥ शक्तिशाली विदुरजी ! उसके इस

अद्भुत पराक्रमकों देखकर महर्षियोने उसका नाम

विजिताश्च रखा ॥ १८ ॥

यज्ञपशुको चषाल और युपे * बाँध दिया गया

था। शक्तिशाली इनद्रन घोर अन्धकार फैला दिया और

उसीमें छिपकर वे फिर उस घोड़ेको उसकी सोनेकी जंजीर

समेत ले गये ॥ १९ ॥ अत्रि मुनिने फिर उन्हें आकाशमें

तेजीसे जाते दिखा दिया, किन्तु उनके पास कपाल और

खटवाड़ देखकर पृथुपुत्रने उनके मार्गम कोई बाधा न

डाली ॥ २० ॥ तब अब्रिने राजकुमारको फिर उकसाया

और उसने गुस्सेमें भरकर इन्द्रकों लक्ष्य बनाकर अपना

बाण चढ़ाया। यह देखते हौ देवराज उस वेष और घोड़ेको

छोड़कर वहीं अन्तर्धान हो गये ॥ २१॥ वीर विजिताश्र

अपना घोड़ा लेकर पिताकी यज्ञशालामें लौट आया |

तवसे इन्द्रके उस निन्दित वेषको मन्दबुद्धि पुरुषोंने

ग्रहण कर लिया ॥ २२ ॥ इच्धने अश्वहरणकी इच्छासे

जो-जो रूप धारण किये थे, वे पापके खण्ड होनेके कारण

है ॥ २३ ॥ इस प्रकार पृथुके यज्ञका विध्वेस करनेके लिये

यज्ञपशुको चुराते समय इन्द्रने जिन्हें कई बार ग्रहण करके

त्यागा था, उन "नग्न", 'रक्ताम्बर' तथा “कापालिक' आदि

पाखण्डपूर्ण आचारोंमें मनुष्योंकी बुद्धि प्रायः मोहित हो

जातौ है; क्योकि ये नास्तिकमत देखनेमें सुन्दर हैं और

बड़ी-बड़ी युक्तियोमे अपने पक्षका समर्थन करते है!

वास्तवे ये उपधर्ममात्र हैं। लोग भ्रमवश धर्म मानकर

इनमें आसक्त हो जाते हैं॥ २४-२५॥

इन्द्रकी इस कुचालका पता लगनेपर परम पराक्रमी

महाराज पृथुको बड़ा क्रोध हुआ । उन्होंने अपना धनुष

उठाकर उसपर बाण चढ़ाया॥२६॥ उस समय

क्रोधावेशके कारण उनकी ओर देखा नहीं जाता था | जब

ऋत्विजोंने देखा कि असहा पराक्रमी महाराज पृथु इन्द्रका

वध करतेको तैयार हैं, तब उन्हें गोकते हुए कहा, 'राजन्‌ !

आप तो बड़े बुद्धिमान्‌ हैं, यज्ञदीक्षा ले लेनेपर

शाख्विहित यज्ञपशुको छोडकर और किसीका वध करना

उचित नहीं दै ॥ २७॥ इस यज्गकार्यमे विघ्र डालनेवाला

आपका शत्रु इन्द्र॒ तो आपके सुयशसे हो ईष्यविश

निस्तेज हो रहा है। हम अमोघ आवाहन-मन्त्रोंद्ार

उसे यहीं बुला लेते हैं और बलात्कारमे अग्ने

हवन किये देते हैं! ॥ २८ ॥

विदुरजी ! यजमानसे इस प्रकार सलाह करके उसके

याजकोने क्रोधपूर्वक इन्द्रका आवाहन किया । वे खुवाद्वारा

आहूति डालना हौ चाहते थे कि ब्रह्माजीने वहाँ आकर

उन्हें रोक दिया॥२९॥ यै बोले, "याजको ! तुम्हे

इन्द्रका बश्च नहीं करना चाहिये, यह यज्ञसंज्ञक इन्द्र तो

भगवान्‌की ही मूर्ति है। तुम यज्ञद्वारा जिन देवताओंकी

आराधना कर रहे हो, वे इन्द्रके ही तो अङ्क हैं और उसे

तुम यज्ञद्वार मारना चाहते हो॥३०॥ पृथुके इस

यज्ञानुष्ठानमें विश्न डालनेके लिये इन्द्रने जो पाखण्ड

फैलाया है, वह धर्मका उच्छेदन करनेवाला है। इस

बातपर तुम ध्यान दो, अब उससे अधिक विरोध मत

करो; नहीं तो वह और भी पाखण्ड मार्गोका प्रचार

# यज्ञमण्डपे यज्ञपशुक्रों बाँधनेके लिये जो खंभा होल है, उसे 'यूप' कड्ते हैं और यूपके आः रखे हुए बलयाकार काए्को 'च्याल'

कहते हैं।

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