आचारकाण्ड]
* अर्श ( बवासीर }-निदान *
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विपरीत कठिन और अल्पाहार ग्रहण करनेके कारण भी
यह उत्पन्न होता है। यस्ति, नेत्र, गले और ओष्ठादिके
भागोंमें घट्ट-रगढ़ (घेठा), अधिक शीतल कलके संस्पर्श
तथा बैठकर लगाम आदिसे साधे जानेवाले वाहन (अश्वादि)-
कौ सवारों करनेसे भी इस रोगकी उत्पत्ति होती है। यह
रोग हटात् पल-मूत्रादिके वेगकों धारण करने और निकालनेसे
भी हो सकता है। ज्वरगुल्म, अतिसार, ग्रहणीरोग, शोथ तथा
पाण्डुरोगके प्रभाव एवं दौर्बल्यकारक आहारादिके सेवनसे
अन्य उपद्रव और विषम चेशओंसे भौ इसका जन्म होता
है। स्त्रियोंमें अपक्व-गर्भपात, गर्भवृद्धि तथा तजन्य पौडाके
कारण इस उपद्रवकी उत्पत्ति होती है।
इन्हीं सब कारणोंसे अपानवायु मलस्थानके भागमें
कुपित हो जाता है। तदनन्तर बह गुदाभागका शुद्ध कार्य
करनेवालों बलियोंमें अपना कुप्रभाव छोड़ता हुआ अके
उन कौलकॉके रूपोंमें जन्म लेता है।
इस रोगका पूर्व लक्षण अष्तिमान्द, विष्टम्भ, वैरे
पीड़ा, पिण्डुलिका कष्ट, भ्रम, शरीरमें शिधिलता, नेत्र,
ज्ञोथ, मलभेद तथा मलग्रह है। इस रोगमें शरीरके अग्रभागसे
निश्चेष्ट वायु नाभिभागसे नीचेकौ ओर संचरण करता हुआ
चीडितकर रक्तसंश्रित होकर बड़ी कठिनाहंसे बाहर निकलता
है। इस रोगमें आत्रभागसे अध्यक्त गुड़गुड़ शब्द होता है।
क्षारसहित ठद॒गार, अतिशय मूत्र, अल्पिष्रा (मल), घृणा,
धूमायित डकार, सिर-पीठ, वक्ष:स्थलमें पीडा, आलस्य
तथा धातुक्षणणका उपद्रव होता है। इसमें इन्द्रिय-सुखकी
चझजलता एवं दुःख होनेके कारण रोगामें क्रोधकी मात्रा बढ़
जाती है। इस रोगके प्रभावसे रोगीमें विष्ठा-त्यागकी आशङ्का
बनी रहती है। उसके पेटमें संग्रहणी, शोध, पाण्डु तथा गुल्म
नामक रोगोंका भौ उपद्रव होता है ।
इतना हौ नही, अरशरोगके होनेसे प्राणियों ये रोग
भलो प्रकारे बढ़ते हो जाते है । उन अर्शकौलकसि गुदामार्ग
अवरुद्ध होनेके कारण अपानवायु भ क्रुद्ध हो उठता है,
जिसके फलस्वरूप वह शरीरकौ समस्त इच्द्रियोंमें स्थित
अन्य समाकादिक भेदवाले बायु-प्रभेदोंकों ब्ध एवं विचलित
कर देता है। वह वायु मूत्र, मल, पित्त तधा कफ, रस-
१-चन्विर<ॐर ८, ऐड, अन्हुन्ति०अर ७
रक्तादिको संश्ुब्ध करता हुआ जठराग्निकों मन्द बना देता
है। उससे प्राय; सभी प्रकारके अर्शरोग' उत्पन्न हो जाते हैं।
शरौरमें इन सभी आर्श-भेदोंका प्रकोप होनेपर रोगीके
शरीरमें अत्यन्त दुर्यलता, उत्साहहीता, दैन्य तथा कान्तिहीनता
आ जाती है। वह रोगी साररहित वृक्षेके समान सारहीन
और छायारहित हो जाता है। मर्मस्थलकौ पीड़ित करनेवाले
अत्यन्त कष्टसाध्य उछू रोगोंका उपद्रव हों जानेसे रोगी एक
दिन यक्ष्माके रोगे भी ग्रस्त हो उठता है। उसके शरीरमें
कास, पिपासा, मुखविकृति, शरास, परस, खेद, अङ्ग- भंग,
वमन, हिचकी, शोध, ज्व, नपुंसकता, बधिरता, स्तब्धता
तथी शर्करा एवं पथरीरोग हो जाते हैं। वह क्षीणकाय्,
स्वरभंग, चिन्तातुर, अरुचि, चरम्बार थुकनेवाला और अनिच्छति
स्वभावका हो ऋता है । उसके सभी पर्व तथा अस्थिभागमें
पोड़ा होतो है। उसका इदय, नाभि, पायु और वंक्षणभाग
शूलसे ग्रस्त हो उठता है। उसके गुदामार्गसे चावलके
धोवनके समान द्रव निकलता है, जो वर्णमें बगुलेके
उदरभागके समान होता है। यह मल कभी-कभी सूखा
हुआ, मोतोके अग्रभागकी कान्तिसे सम्पन्न, पके हुए आमके
समान पौत, हरा, लाल, पाण्डु, हल्दिया तथा पिच्छिलवर्णका
होता है।
वात- प्रकोपके कारण रोगोके गुदाभागमें जो मांसांकुर
निकलते हैं, उनके बीच भागोंसे अपानवायु अधिक पात्रा्मे
निकलता है, वे सूखे हुए होते हैं, उनमें चिमचिषाहट या
चुनचुनाहट होती है, उनका वर्ण गाढ़े अंगारके समान लाल
होता है। वे पोड़ाके कारण रोगौको स्तब्ध बना देते हैं, उन
सभी अंकुरोंमें विषमता होतो है और उनका स्वभाव बड़ा
ही कठोर होता है। इतना ही नहीं, उनमें विशेष समानता भी
प्राप्त होती है। वे वक्र और तीक्ष्ण तरथा फटे हुए मुखवाले
होते हैं।
वातजन्य अशंके सभी मांसांकुरोंकी आकृतियाँ विम्ब,
खजूर, वेर तथा कपासके फलोंकी भाँति होतो हैं। कुछ
अंकुर कदम्ब पुष्प ओर कुछ सरसोंके फूलके समार
आभावाले होते हैं।
इस रोगके होनेपर रोगीके सिर, पार, स्कन्ध, जपा,