दण्डनाथा श्यामला सेना यात्रा ] [ २३७
इमौ चाक्षयबाणाढचौ तूणीरौ स्वर्णचित्रिती ।
गृहाण दं त्यनाशाय ममानुग्रहहेतवे ॥४२
वह पन्त्रनाथा जहां -जहां पर अपने कटाक्ष को विकीर्णं किया करती
है वहाँ पर शत्, की सेना गताशंक होकर पूर्णतया पतन को प्राप्त हो जाया
करती हैं ।३६। परमेशानी ललिता की जितनी भी राज्य चर्चा होती है और
उसकी शक्तियों की जो चर्चा है वह सर्वत्र विजय के प्रदान करने बाली होती
है ।३७। इसके अनन्तर संगोत योगिनी के कर में स्थित शुक पोत (शिशु)
से सज्जित शरासन का वहन करता हुआ धनुर्वेद निकला था ।३८। वह चार
बाहुओं ते संयुत था-तीन उसके शिर थे और उस बीर के तीन ही नेत्र
थे । उसने प्रधानेशी को प्रणिपात करके यह उस भक्तिमान ने प्रार्थना की
थी ।३६। हे मन्त्रिनायिके | हे देवि ! इस समय में आप भण्डासुरेन्द्र के साथ
युद्ध करने के लिए प्रवृत्त हो रही हैँ । भतएव मेरे द्वारा आपकी सहायता
करनी चाहिए ।४०। है जगतों कौ जननि ! यह चित्र जीव नाम वाला को
दण्ड बहुत ही अधिक महान है । यह् समस्त दानवों का निवहुंण करने वाला
है । इसको आप ग्रहण कोजिए ।४१। ये दोनों तूणीर हैं जिनमें कभी भी
बाणों का क्षय नहीं होता है और ये स्वर्ण से चित्रित हैं इनको भी आप
केवल मुझ पर अनुग्रह करने के लिए ही ग्रहण कीजिए ।४२।
इति प्रणम्य शिरसा धनुर्वेदिन भक्तित: ।
अपितांश्चापतृणीराज्जग्राह प्रियकप्रिया ॥४३
चित्रजीवं महाचापमादाय च शुकप्रिया ।
बिस्फारं जनयामास मौर्वीमृद्रा् भूरिशः ॥४४
संगीतयोगिनी चापध्वनिना पूरितं जगत् ।
नाकालयानां च मनोनयनानंदसंपदा ॥४५
यंत्रिणी तंत्रिणी चति दवं तस्याः परिचारिके ।
- शुकं वीणां च सहसा वह् त्यौ परि चेरतुः ।।४६
आलोलवलयक्वाणधिष्णुगुणनिस्वनम् ।
धारयंती घनश्यामा चकाराति मनोह रम् ।।४७
चित्रजीवशरासेन भूषिता गीतयोगिनी ।
कदंविनीव रुरुचे कदम्बच्छवकागु का ॥४८