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उत्तराचिंके पञ्चदशोऽध्यायः १५.३

१५४९.कया ते अग्ने अङ्गिर ऊर्जो नपादुपस्तुतिम्‌।

वराय देव मन्यवे ॥४॥

हे अंग प्रकाशक और बलवर्द्धक अग्निदेव ! सभी द्वारा स्वीकार करने योग्य और विरोधियों को पीडित

करने वाले आपकी हम किस वाणी से स्तुति करें ? ॥४ ॥

१५५०.दाशेम कस्य मनसा यज्ञस्य सहसो यहो।

कदु वोच इदं नमः ॥५॥

हे (अरणिमिंधनरूप) पुरुषार्थ से उत्पन्न अग्निदेव ! किस यजमान के देवयजन कर्म द्वारा हम आहूति आपके

निपित्त अर्पित करें ? ये हवि अथवा ये स्तुतियाँ आपको प्राप्त हों, ऐसी प्रार्थना हम कब करें 2 ॥५ ॥

१५५१.अधा त्वं हि नस्करो विश्वा अस्मथ्यं सुक्षितीः ।

वाजद्रविणसो गिरः ॥६ ॥

हे अग्ने ! ! आपकी हम पर ऐसी कृपा हो, जिससे अपनी स्तुतियो के प्रभाव से हम श्रेष्ठ स्थानों के अधिपति

और श्रेष्ठ पोषक धन-धान्य से युक्त हो जाएँ ॥६ ॥

१५५२.अग्न आ याहाग्निभिहोंतारं त्वा वृणीमहे ।

आ त्वामनक्तु प्रयता हवष्मिती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥७॥

है अग्निदेव ! आप देवों को बुलाने वाले हैं, हमारी प्रार्थना सुनकर अपनी (विभूतिरूप) अग्नियों सहित

यहाँ पधारें । हे पूज्य अग्निदेव ! आपके लिए तैयार हविष्यानन, यज्ञ वेदिका पर आसन ग्रहण करने के बाद

आहुतिरूप में आपको प्राप्त हो ॥७ ॥ +

१५५३.अच्छा हि त्वा सहसः सूनो अड्डिरः सुचश्चरन््यध्वरे ।

ऊर्जो नपातं धृतकेशमीमहेऽग्निं यज्ञेषु पूर्व्यम्‌ ॥८ ॥

बलोत्पन्न, सर्वत्र गमनशील है अग्निदेव ! आप तक हविष्यान पहुँचाने के लिए ये हवि पात्र सक्रिय है ।

शक्ति का हास रोकने वाले अभीष्ट दाता, तेजस्वी, ज्वालायुक्त अग्निदेव की हम यज्ञ में प्रार्थना करते है ॥८ ॥ `

९५५४.अच्छा नः शीरशोचिषं गिरो यन्तु दर्शतम्‌ ।

अच्छा यज्ञासो नसा पुरूवसुं पुरुप्रशस्तमूतये ॥९ ॥

हमारी प्रार्थनाएँ भलीप्रकार प्रज्वलित ज्वालाओं से परिपूर्णं ओर दर्शनयोग्य अग्निदेव के समीप सहजता

से जाएँ । हमारी रक्षा के लिए घृतयुक्त हवियों से सम्पन्न किये गये यज्ञ, प्रचुर सम्पदा से युक्त ओर अति प्रशंसनीय

अग्निदेव को प्राप्त हों ॥९ ॥

१५५५.अग्निं सूनुं सहसो जावेदसं दानाय वार्याणाम्‌ ।

द्विता यो भूदमृतो मर्त्येष्वा होता मन्द्रतमो विशि ॥१० ॥

जो अग्नि अमरत्व प्राप्त देवताओं में है, वह मनुष्यों में भी उसी प्रकार अमूृतरूप है, अर्थात्‌ दोनों स्थानों में

बह अमृत रूप है । मनुष्यों में यज्ञ को सफल करने वाले आनन्ददायक सर्वज्ञ अग्निदेव को धन-धान्य प्रदान करने

के लिए हम बुलाते हैं ॥१० ॥

॥इति द्वितीय: खण्ड: ॥

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