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+ अध्याय १०६ * २३१

तथा पुत्रकी प्राप्ति-ये दक्षिण दिशाके आठ द्वारोंके | पश्चिम द्वारके फल हैं। रोग, मद, आर्ति, मुख्यता,

फल हैं। आयु, संन्यास, सस्य, धन, शान्ति, | अर्थ, आयु; कृशता और मान--ये क्रमशः उत्तर

अर्थनाश, शोषण, भोग एवं संतानकी प्राप्ति--ये | दिशाके द्वारंक फल है ॥ ३४--३८॥

इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें “नगरग॒ह' आदिकी कास्तु -प्रतिष्ठा-विधिका वर्णन” नायकः

एक सौ ग्राँकवाँ अध्याय पूरा हुआ॥ १०५॥

=

एक सौ छठा अध्याय

नगर आदिके वास्तुका वर्णन

भगवान्‌ महेश्वर कहते हैँ -- कार्तिकेय ! अब

मैं राज्यादिकी अभिवृद्धिके लिये नगर-वास्तुका

वर्णन करता हूं । नगर-निर्माणके लिये एक योजन

या आधी योजन भूमि ग्रहण करे। वास्तु-नगरका

पूजन करके उसको प्राकारसे संयुक्त करे। ईशादि

तीस पदोंमें सूर्यके सम्मुख पूर्वद्वार, गन्धर्वके

समीप दक्षिणद्वार, वरुणके निकट पश्चिमद्वार और

सोमके समीप उत्तरद्वार बनाना चाहिये। नगरमें

चौड़े-चौडे बाजार बनाने चाहिये। नगरद्वार छः

हाथ चौड़ा बनाना चाहिये, जिससे हाथी आदि

सुखपूर्वक आ-जा सकें। नगर छिलन्नकर्ण, भग्न

तथा अर्धचनन्द्राकार नहीं होना चाहिये। वज्ज-

सूचीमुख नगर भी हितकर नहीं है। एक, दो या

तीन द्वारोंसे युक्त धनुषाकार वञ्जनागाभ नगरका

निर्माण शान्तिप्रद है॥ १--५॥

नगरके आग्नेयकोणमें स्वर्णकारोंको बसावे,

दक्षिण दिशामें नृत्योपजीविनी वाराड्रनाओंके भवन

हों। नै्क्रत्यकोणमें नट, कुम्भकार तथा केवर

आदिके आवास-स्थान होने चाहिये। पश्चिममें

रथकार, आयुधकार और खड्ग-निर्माताओंका

निवास हो। नगर के बायव्यकोणमें मद्य-विक्रेता,

कर्मकार तथा भृत्योंका निवेश करे। उत्तर दिशामें

ब्राह्मण, यति, सिद्ध और पुण्यात्मा पुरुषोंको

बसावे। ईशानकोणमें फलादिका विक्रय करनेवाले

एवं बणिगू-जन निवास करें। पूर्व दिशामें सेनाध्यक्ष

रहें। आग्नेयकोणमें विविध सैन्य, दक्षिणमें स्त्रियोंको

ललित कलाकी शिक्षा देनेवाले आचार्यों तथा

नै्त्यकोणमें धनुर्धर सैनिकोंको रखे। पश्चिममें

महामात्य, कोषपाल एवं कारीगरोंकों, उत्तरमें

दण्डाधिकारी, नायक तथा द्विजोंको/पूर्वमें क्षत्रियोंको,

दक्षिणमें वैश्योंको, पश्चिममें शुद्रोंको, . विभिन्न

दिशाओंमें वैद्योंको और अश्च तथा सेनाको चारों

ओर रखे॥ ६-१२ ॥

राजा पूर्वमें गुप्तचरों, दक्षिणमें श्मशान, पश्चिममें

गोधन और . उत्तरमें कृषकोंका निवेश करे।

म्लेच्छोंको दिक्कोणोंमें स्थान दे अथवा ग्रामोमें

स्थापित करे। पूर्वद्वारपर लक्ष्मी एवं कुबेरकी

स्थापना करे। जो उन दोनोंका दर्शन करते है,

उन्हें लक्ष्मी (सम्पत्ति)-की प्राति होती है।

पश्चिममें निर्मित देवमन्दिर पूर्वाभिमुख, पूर्व दिशामें

स्थित पश्चिमाभिमुख तथा दक्षिण दिशाके मन्दिर

उत्तराभिमुख होने चाहिये। नगरकी रक्षाके लिये

इन्द्र और विष्णु आदि देवताओंके मन्दिर बनवावे।

देवशून्य नगर, ग्राम; दुर्ग तथा गृह आदिका

पिशाच उपभोग करते हैं और वह रोगसमूहसे

परिभूत हो जाता है। उपर्युक्त विधिसे निर्मित नगर

आदि सदा जयप्रद और भोग-मोक्ष प्रदान करनेवाले

होते हैं॥ १३--१७॥

वास्तु-भूमिकौ पूर्व दिशामें शृक्गार-कक्ष,

अग्निकोणमें पाकगृह (रसोईघर), दक्षिणमें शयनगृह,

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