काण्ड-६ सुक्त- ८९ ४६
१५६०. इन्द्र एतमदीधरद् शवं वेण हविषा । तस्मै सोमो अधि ब्रवदयं च ब्रह्मणस्पतिः॥
इन्रदेव इस (अधिपति) को अक्षय यजनीय सामग्रो उपलब्ध करके स्थिरता प्रदाने करें । सोम उन्हे अपना
आत्मीय परतरं । ब्रह्मणस्पति भी उन्हें आत्मीय हौ समझें ॥३ ॥
[ ८८ - श्ुवोराजा सूक्त ]
॥ [ ऋषि - अर्वा । देवता - धुव । छन्द - अनुष्ठुप् ३ त्रिष्ठप् ।]
` १५६१. ध्रुवा द्यौरधुवा पृथिवी धुवं विश्वमिदं जगत्।
ध्रुवासः पर्वता इपर शुवो राजा विशामयम् ॥९॥
जिस प्रकार आकाश, पृथ्वो, सम्पूर्ण पर्वत और समस्त विश्च अविचल है, उसी प्रकार ये प्रजाजनों के स्वामी
"राजा' भी स्थिर रहें ॥१ ॥
१५६२. धरुवं ते राजा वरुणो धरुवं देवो बृहस्पति: ।
धरुवं त इन्द्रश्ाग्निश्च राष्ट्र धारयतां धुवम् ॥२ ॥
हे राजन् ! आपके राष्ट्र को वरुणदेव स्थायित्व प्रदान करें । दिव्य गुणों से युक्त वृहस्पतिदेव स्थिरता प्रदान
करें । इन्द्रदेव और अग्निदेव भी आपके राष्ट्र को स्थिर रूप से धारण करें ॥२ ॥
१५६३. ध्रुवो5च्युत: प्र मृणीहि शत्ूञ्छन्रूयतोऽ धरान् पादयस्व ।
सर्वा दिशः संमनसः सश्नीचीर्धुवाय ते समिति: कल्पतामिह ॥३ ॥
हि राजन् ! अपने को सुदृढ़- स्थिर रखकर शत्रुओं को मसल डालो । जिनका आचरण शत्रुओं के समान है,
ऐसों को भी गिरा दो । शत्रु नाश होने पर समस्त दिशाओं कौ प्रजा समान बुद्धि एवं समान मन वाली हो और
उनकी समिति आपकी सुदृढ़ता के लिए योजना बनाने में समर्थ हो ॥३ ॥
[ ८९ - प्रीतिसंजनन सूक्त ]
[ ऋषि - अथर्वा । देखता - (रुद्र) १ सोम, २ बात, ३ मित्रावरुण । छन्द - अमनुष्टप् ।]
१५६४. इदं यत् प्रेण्य: शिरो दत्त सोमेन वृष्णयम्।
ततः परि प्रजातेन हार्दिं ते शोचयामसि ॥१ ॥
सोम-अ्रदत्त प्रेम करने वाला यह बलवान् सिर है, इससे उत्पन्न हुए बल से अर्थात् प्रेम से हम आपके हृदय
के भावों को उद्दीप्त करते हैं ॥१ ॥
१५६५. शोचयामसि ते हार्दि शोचयामसि ते मन: ।
वातं धूप इव सध्य१ड् मामेवान्वेतु ते मनः ॥२ ॥
हम तुम्हारे हृदय के भावों को उद्दीप्त करते हैं। तुम्हारे मन को प्रेम भाव से प्रभावित करते हैं, जिससे तुम
हमारे प्रति उसी प्रकार अनुकूल हो जाओ, जिस प्रकार धूम्र, वायु के अनुकूल एक ही दिशा में प्रवाहित होता है ॥२॥
१५६६. महं त्वा मित्रावरुणौ महं देवी सरस्वती ।
महं त्वा मध्यं भूम्या उभावन्तौ समस्यताम् ३ ॥
मित्रावरुणदेव, देवौ सरस्वती , पृथ्वी के दोनो अन्तिपभाग एवं मध्यभाग (निवासी. प्राणी) तुम्हें हमारे प्रति
जोड़ें अर्थात् इन सब दिव्य-शक्तियों की कृपा से तुम्हारा स्नेह हमारे प्रति बढ़े ॥३ ॥