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अध्याय १७] * देवाङ्गोमे तरुओंकी उत्पत्ति, चिष्णु-पूजा,विष्णुपञ्जरस्तोत्र ओर महिषका प्रसङ्ग *

महेश्वरस्य हृदये थत्तूरविटप: शुभः।

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भगवान्‌ शंकरके हृदयपर सुन्दर धतुर-वुक्ष उत्पन हुआ,

संजातः स च शर्वस्य रतिकृत्‌ तस्य नित्यशः ॥ ४ | अतः वह शिवजीको सदा प्यारा है ॥ १--४॥

ब्रह्मणो मध्यतो देहार्जातो मरकतप्रभः।

खदिरः कण्टकी श्रेयानभवद्विश्वकर्मण:॥ ५

गिरिजायाः करतले कुन्दगुल्मस्त्वजायत ।

गणाधिपस्य कुम्भस्थो राजते सिन्धुवारकः ॥ ६

यमस्य दक्षिणे पारं पालाशो दक्षिणोत्तरे।

कृष्णोदुम्बरको रुद्राज्जातः क्षोभकरो वृषः॥ ७

स्कन्दस्य बन्धुजीवस्तु रवेरश्चत्थ एव च।

कात्यायन्या शमी जाता क्त्वो लश््याः केऽभवत्‌॥ ८

नागानां पतये ब्रह्मज्छरस्तम्बो व्यजायत।

वासुकेर्विस्तृते पुच्छे पृष्टे दूतां सितासिता ॥ ९

साध्यानां हदये जातो वृक्षो हरितचन्दनः।

एवं जातेषु सर्वेषु तेन तत्र॒ रतिभवित्‌॥ ९०

तत्र रम्ये शुभे काले या शुक्लैकादशी भवेत्‌।

तस्यां सम्पूजयेद्‌ विष्णुं तेन खण्डोऽस्य पूर्यते ॥ ११

पुष्पैः पत्रैः फलैर्वापि गन्धवर्णरसान्वितैः।

ओषधीभिश्च मुख्याभिर्यावत्स्याच्छरदागमः ॥ १२

धृतं तिला ब्रीहियवा हिरण्यकनकादि यत्‌।

मणिमुक्ताप्रवालानि वस्त्राणि विविधानि च॥ १३

रसानि स्वादुकट्‌वप्लकषायलवणानि च।

तिक्तानि च निवेद्यानि तान्यखण्डानि यानि हि॥ १४

तत्पूजार्थ प्रदातव्य॑ केशवाय महात्मने

यदा संवत्सरं पूर्णमखण्डं भवते गृहे ॥ १५

कृतोपवासो देवर्ष द्वितीयेऽहनि संयतः।

स्नानेन तेन स्नायीत येनाखण्डं हि वत्सरम्‌ ॥ १६

सिद्धार्थकैस्तिलैर्वापि तेनैवोदर्तनं स्पृतम्‌।

हविषा पद्मनाभस्य स्नानमेव सपाचरेत्‌।

होमे तदेव गदितं दाने शक्तिर्निजा द्विज ॥ ९७

ब्रह्माजोके शरीरके बीचसे मरकतमणिके समान

खैरवृक्षकी उत्पत्ति हुई और विश्चकमकि शरौरसे सुन्दर

कटैया उत्पन्त हुआ। गिरिनन्दिनी पार्यतीके करतलपर

कुन्द लता उत्पन हुई और गणपतिके कुम्भ-देशसे

सेंदुवारवृक्ष उत्पन्न हुआ। यमराजकी दाहिनी बगलसे

पलाश तथा बायीं बगलसे गूलरका वृक्ष उत्पन्न हुआ।

रुद्रसे उद्विप्र करनेवाला वृष (ओषधि-विशेष)-की

उत्पत्ति हुई । इसी प्रकार स्कन्दसे बन्धुजीव, सूर्यसे

पीपल, कात्यायनी दुर्गासि शमी और लक्ष्मीजीके हाथसे

बिल्ववृक्ष उत्पनन हुआ ॥ ५--८॥

नारदजी ! इसी प्रकार शेषनागसे सरपत, वासुकिनागकी

पुच्छ और पीठपर श्वेत एवं कृष्ण दूर्वा उत्पन्न हुई।

साध्योकि हृदयमें हरिचन्दनवृक्ष उत्पन हुआ । इस प्रकार

उत्मन होनेसे उन सभी वृक्षों उन-उन देवताओंका

प्रेम होता है।

उस रमणीय सुन्दर समयमें शुक्लपक्षकौ जो

एकादशी तिथि होती है, उसमें भगवान्‌ विष्णुकी पूजा

करनी चाहिये। इससे पूजाकी न्यूनता दूर हो जातो है।

शरत्कालकी उपस्थितितक गन्ध, वर्ण और रसयुक्त पत्र,

पुष्प एवं फलों तथा मुख्य ओषधियोंसे भगवान्‌

विष्णुकी पूजा करनी चाहिये॥९--१२॥

घो, तिल, चावल, जौ, चाँदी, सोना, मणि, मुक्ता,

मूँगा तथा नाना प्रकारके वस्त्र, स्वादु, कटु, अम्ल,

कथाय, लवण और तिक्त रस आदि वस्तुओंको

अखण्डितरूपसे महात्मा केशवकौ पूजाके लिये अर्पित

करना चाहिये। इस प्रकार पूजा करते हुए वर्षको

बितानेपर घरमे पूर्ण समृद्धि होती है। देवर्षे! जितेन्द्रिय

होकर दूसरे दित उपवास करके जिससे वर्ष अखण्डित

रहे इसलिये इस प्रकार स्नान करे--॥ १३-१६ ॥४

सफेद सरसों या तिलके द्वारा उबटन

तैयार करता चाहिये ऐसा कहा गया है। उससे

या घोसे भगवान्‌ विष्णुको स्नान कराना

चाहिये। नारदजी। होममें भी घोका हौ विधान है

और दानमे भी यथाशक्ति उसौकौ विधि है।

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