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एवं वर्धनीयुक्त कलशका पूजन करें। कलशके

मध्ये ब्रह्मा तथा दिकृपालॉका यजन करे। फिर

स्वस्तिवाचन एवं प्रणाम करके पूर्णाहुति दे।

ब्रह्मन्‌! तदनन्तर गृहपति हाथमे छिद्रयुक्त जलपात्र

- लेकर विधिपूर्वक दक्षिणावर्तं मण्डल बनाते हुए

सूत्रमार्गसे जलधाराको घुमावे। फिर पूर्ववत्‌ उसी

मार्गसे सात बीर्जोका वपन करे। उसी मार्गसे खात

(गहे) -का आरम्भ करे । तदनन्तर मध्यमे हाथभर

चौड़ा एवं चार अम्जुल नीचा गर्तं खोद ले।

उसको लीप-पोतकर पूजन प्रारम्भ करे । सर्वप्रथम

चार भुजाधारी श्रीविष्णु भगवान्‌का ध्यान करके

पुष्प डाले । उस श्रेष्ठ दक्षिणावर्त गर्तको बीज एवं

मृत्तिकासे भर दे। इस प्रकार अर्घ्यदानका कार्य

निष्पन्न करके आचार्यको गो- वस्त्रादिका दान

करे। ज्यौतिषी ओर स्थपति (राजमिस्त्री)-का

यथोचित सत्कार करके विष्णुभक्तं और सूर्यका

पूजन करे। फिर भूमिको यत्नपूर्वक जलपर्यन्त

खुदवावे। मनुष्यके बराबरकी गहराईसे नीचे यदि

शल्य (हड्डी आदि) हो तो वह गृहके लिये

दोषकारक नहीं होता है । अस्थि (शल्य) होनेपर

घरकी दीवार टूट जाती है ओर गृहपतिको सुख

नहीं प्राप्त होता है। खुदाईके समय जिस जीव-

उन्हें कलशसे अर्य -प्रदान करे । फिर छिद्रयक्त | जन्तुका नाम सुनायी दे जाय, वह शल्य उसी

जलपात्र (झारी)-से गर्तको भरकर उसमें श्वेत | जीवके शरीरसे उद्धूत जानना चाहिये ॥ २२--३१॥

इस ग्रकार आदि आग्रेय महापुराणमें 'वास्तु-देवताओंके अर््य-दान-विधान आदिक वर्णन

नामक चालीसवां अध्याय पूरा हुआ॥ ४०॥

इकतालीसवाँ अध्याय

शिलान्यासकी विधि

भगवान्‌ हयग्रीव बोले--अब रँ

शिलान्यासस्वरूपा पाद-प्रतिष्ठाका वर्णन करूँगा।

पहले मण्डप बनाना चाहिये; फिर उसमें चार

कुण्ड बनावे। वे कुण्ड क्रमशः कुम्भन्यास',

इष्टकान्यास', द्वार और खम्भेके शुभ आश्रय होंगे।

कुण्डका तीन चौथाई हिस्सा कंकड़ आदिसे भर

दे और बराबर करके उसपर वास्तुदेवताका पूजन

करे। नींवमें डाली जानेवाली ईँ खूब पकी हों;

बारह-बारह अन्लुलकी लंबी हों तथा विस्तारके

तिहाई भागके बराबर, अर्थात्‌ चार अङ्गुल उनकी

१. कलशकी स्थापना। २. ईंट या फत्थरकी स्थापना ।

मोटाई होनी चाहिये। अगर पत्थरका मन्दिर

बनवाना हो तो ईटकी जगह पत्थर ही नींवमें

डाला जायगा। एक-एक पत्थर एक-एक हाथका

लंबा होना चाहिये। (यदि सामर्थ्यं हो तो)

ताँबेके नौं कलशोंकी, अन्यथा मिट्टीके बने नौ

कलशॉकी स्थापना करे। जल, पञ्चकषाय', सर्वौषधि

और चन्दनमिश्रित जलसे उन कलशॉको पूर्ण

करना चाहिये। इसी प्रकार सोना, धान आदिसे

युक्त तथा गन्ध-चन्दन आदिसे भलीभाँति पूजित

करके उन जलपूर्णं कलशेद्वारा "आपो" हि टा"

३. तन्रके अनुसार निम्नाद्धित पाँच वृक्षोंका कषाय - जामुन, सेमर, खिरेंटी, मौलसिरी और बेर । यह काय वृक्षकौ छालको

पानीमें भिगोकर निकाला जाता है और कलशमें डालने एवं दुर्गापूजन आदिके काम आता है ।

४. ॐ आपो हि छ मयोभुयः। ॐ ता न उत दधातन । ॐ> महे रणाय चक्षसे । ॐ> यो व: शिवतमों रसः । 3+ तस्य भाजयतेह नः । ॐ>

उशतीरिव मातरः । ॐ तरद अपरं ग्यम व: । ॐ> यस्य क्षयाय जिन्वध । ॐ आपो जनयथा च न: । (यजु>, आ० ११, मख ५०, ५१, ५२)

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