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६६८. अस्मै भीमाय नमसा समध्यर उषो न शुभ्र आ भरा पनीयसे ।
यस्य धाम श्रवसे नापेन्द्ियं ज्योतिरकारि हरितो नायसे ॥३ ॥
हे दीप्तिमति उषे ! शत्रुओं के प्रति विकराल और प्रशंसनीय उन इद्धदेव के लिये नमस्कार के साथ यज्ञ
सम्पादन करें, जिनका धाम (स्थान) अन्नादि दान के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध है, जिनकी साम्यं और कीर्ति अश्व के
सदृश सर्वत्र संचरित होती है ॥३ ॥
६६९. इमे त इन्द्र ते वयं पुरुष्टुत ये त्वारभ्य चरामसि प्रभूवसो ।
नहि त्वदन्यो गिर्वणो गिरः सघत्क्षोणीरिव प्रति नो हर्य तद्गच: ॥४ ॥
हे सप्पत्तिवान् एवं बहप्रशंसित इन्रदेव ! आपके संरक्षण में कार्य करते हुए, निष्ठापूर्वक रहते हुए, आपके
समान अन्य स्तुत्य देवता के न रहने के कारण, हम आपकी स्तुति करते हैं। सभी पदार्थों को स्वीकार करने
बाली पृथ्वी के समान आप भी हमारे स्तोत्रों को स्वीकार करें ॥४ ॥
६७०. भूरि त इन्द्र वीयै१तव स्मस्यस्य स्तोतुर्मधवन्कापमा पृण।
अनु ते चौर्बृहती वीर्यं मम इयं च ते पृथिवी नेम ओजसे ॥५ ॥
हे ऐश्वर्यशाली इन्द्रदेव ! स्तुति करने वाले इन साधको की कामनाये पूर्ण करें । आप अत्यन्त बलवान्
हैं। यह महान् घुलोक भी आपके बल पर ही स्थित है और यह पृध्वी भौ आपके बल के आगे झुकती है ॥५ ॥
६७१. त्वं तमिन्द्र पर्वतं महामुरु वत्रेण वन्रिनपर्वशश्चकर्तिथ ।
अवासृजो निवृताः सर्तवा अपः स॒त्रा विश्वं दधिषे केवलं सहः ॥६ ॥
हे वज्रधारी इनद्रदेव ! आपने महान् बलशालौ मेधो को अपने वन्न से खण्ड- खण्ड किया और रुके जल-प्रवाहों
को बहने के लिए मुक्त किया केवल आप ही सब संधर्षक शक्तियों को धारण करते है, यही सत्य है ॥६ ॥
[सूक्त - ५८ |
[ऋषि - नोधा गौतम । देवता - अग्नि छन्द - जगती, ६-९ त्िष्टप् ॥]
६७२. नू चित्सहोजा अभूतो नि तुन्दते होता यूतो अभवद्विवस्वतः ।
वि साधिष्ठेभिः पथिभी रजो मम आ देवताता हविषा विवासति ॥१॥
निश्चित रूप से बलों से उत्पन्न (अरणि - मन्थन द्वारा उत्पन्न) यह अपर अग्निदेव कभी संतप्त नहीं होते ।
वे यजमान के दूत रूप में सहायक होते हैं। वे अपने उत्तम मार्गों से अन्तरिक्ष में प्रकाशित होते हुए गमन
करते हैं। देवों कर समर्पित हविष्याने उन तक पहुँचाकर सम्मानित करते हैं ॥१ ॥
६७३. आ स्वप्तदा युवमानो अजरस्तृष्वविष्यश्नतसेषु तिष्ठति ।
अत्यो न पृष्ठं परुषितस्य रोचते दिवो न सानु स्तनयन्नचिक्रदत् ॥२ ॥
कभी जीर्णता को न प्राप्त होने वाले अग्निदेव, हवियो के साथ मिलकर इनका भक्षण करते हुए समिधाओं
पर दीप्तिमान् होते है । भृत के सिंचन से ऊपर उठती हुई इनकी ज्वालाये सज्जित अश्व के सदृश सुशोभित
होती दै । ये आकाशस्थ मेष के गर्जन के सपान शब्द करते हुए वृद्धि को पराप्त होते हैं ॥२ ॥