अध्याय ८]
मुदगरे वितथे जाते प्रासमाविध्य वेगवान्।
प्रचिक्षेप नराग्रयाय तं च चिच्छेद धर्मजः ॥ २२
प्रासे छिन्े ततो दैत्यः शक्तिमादाय चिक्षिपे।
तां च चिच्छेद बलवान् क्षुरप्रेण महातपाः ॥ २३
छिनेषु तेषु शस्त्रेषु दानवोऽन्यन्महद्धनुः ।
समादाय ततो बाणैरवतस्तार नारद्॥ २४
ततो नारायणो देवो दैत्यनां जगद्गुरुः ।
नाराचेन जघानाथ हदये सुरतापसः॥ २५
संभिनहदयो ब्रह्मन् देवेनाद्धूतकर्मणा।
निपपात रथोपस्थे तमपोवाह सारथिः ॥ २६
स संसं सुचिरेणैब प्रतिलभ्य दितीश्चरः।
सुदृढं चापमादाय भूयो योद्धमुपागतः ॥ २७
तमागतं संनिरीक्ष्य प्रत्युवाच नराग्रजः।
गच्छ दैत्येन्द्र योत्स्यामः प्रातस्त्वाद्धिकमाचर ॥ २८
एवमुक्तो दितीशस्तु साध्येनाद्धुतकर्मणा।
जगाम नैमिषारण्यं क्रियां चक्रे तदाहिकीम्॥ २९
एवं युध्यति देवे च प्रहवादो हासुरो मुने।
रात्रौ चिन्तयते युद्धे कथं जेष्यामि दाभ्भिकम्॥ ३०
एवं नारायणेनाऽसौ सहायुध्यत नारद ।
दिव्यं वर्षसहस्रं तु दैत्यो देवं न चाजयत्॥ ३१
ततो वर्षसहस्रान्ते हाजिते पुरुषोत्तमे ।
पीतवाससमभ्येत्य दानवो वाक्यमब्रवीत् ॥ ३२
किमर्थं देवदेवेश साध्यं नारायणं हरिम्।
विजेतुं नाऽद्य शक्नोमि एतन्मे कारणं वद ॥ ३३
प्रीतवासा उवाच
दुर्जयोऽसौ महाबाहुस्त्वया प्रद्वाद धर्मजः।
साध्यो विप्रवरो धीमान् मृधे देवासुरैरपि ॥ ३४
* प्रहाद और नारायणका तुमुल युद्ध, भक्तिसे विजय *
३७
प्रह्नदने मुदगरके विफल हो जानेपर 'प्राश' नामक
अस्त्र लेकर बड़े जोरसे नरके बड़े भाई नारायणके ऊपर
चला दिया; पर उन्होंने उसे भी काट डाला। प्राशके नष्ट
हो जानेपर दैत्ये तेज "शकि" फेंकी, पर बलवान्
महातपा नारायणने उसे भी अपने श्षुरप्रके द्वारा काट
डाला। नारदजी! उन सभी अस्त्रोंके नष्ट हो जानेपर
प्रह्द दूसरे विशाल धनुषकों लेकर बाणोंकी वर्षा करने
लगे। तब परम तपस्वी जगद्गुरु नारायणदेवने प्रह्ादके
दयें नाराचसे प्रहार किया॥ २२--२५॥
नारदजी! अद्भुत पराक्रमौ नारायणके प्रहारसे
प्रद्मावका हृदय बिंध गया, फलतः ये बेहोश होकर
रथके पिछले भागमें गिर पड़े। यह देखकर सारथी उन्हें
यहाँसे हटाकर दूर ले गया। बहुत देरके बाद जब उन्हें
चेतना प्राप्त हुई --होश आया, तब वे पुनः सुदृढ़ धनुष
लेकर नर-नारायणसे युद्ध करनेके लिये संपग्रामभूमिमें
आ गये। उन्हें आया देख नारायणने कहा--दैत्येद्र! अब
हम कल प्रात: युद्ध करेंगे; तुम भी जाओ, इस समय
अपना नित्य कर्म करो। अद्भुत पराक्रमी श्रीनारायणके
ऐसा कहनेपर प्रहवाद नैमिषारण्य चले गये और वहाँ
अपने नित्य कर्म सम्पन्न किये॥ २६--२९॥
नारदजी! इस प्रकार भगवान् नारायण एवं
दानवेन्द्र प्रहाद-दोनोंमें युद्ध चलता रहा। राक्र
प्रहाद यह विचार किया करते थे कि मैं युद्धमें इन
दम्भ करनेवाले ऋषिको कैसे जीतूंगा? नारदजी! इस
प्रकार प्रह्ादने भगवान् नारायणके साथ एक हजार
दिव्य वर्षोंतक युद्ध किया, परंतु वे उन्हें (नारायणको)
जीत न पाये। फिर हजार दिव्य वर्षोके बीत जानेपर
भी पुरुषोत्तम नारायणको न जीत सकनेपर
प्रह्ादने चैकुण्ठमें जाकर पीतयस्त्रधारी भगवान्
विष्णुसे कहा -देवेश ! मैं (सरलतासे) साध्य नारायणकों
आजतक क्यो न जीत पाया, आप मुझे इसका
कारण बतलायें॥ ३०--३३॥
इसपर पीतवस्प्रधारी भगवान् विष्णु बोले--
प्रह्ाद ! महाबाहु धर्मपुत्र नारायण तुम्हारे द्वारा दुर्जेय हैं।
वे ब्राह्मणे शष्ठ ऋषि परम ज्ञानी हैं। वे सभी देवताओं
एवं असुरोंसे भी युद्धमें नहों जीते जा सकते॥ ३४॥