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॥ एन्द्रं पर्व ॥

॥अथ द्वितीयोऽध्यायः ॥

॥ प्रथमः खण्ड: ॥

११५. तद्वो गाय सुते सचा पुरुहूताय सत्वने । शं यद्गवे न शाकिने ॥१ ॥

हे स्तोताओ । सोमरस तैयार हो जाने के पश्चात्‌ अनेक लोग जिनकी स्तुति करते हैं, उन बलवान्‌ इन्द्रदेव

के लिए एक साथ सब मिलकर स्तुति करें । इससे इद्धदेव को वैसा ही सुख प्राप्त होगा, जैसे गाय को घास से

मिलता है ॥१ ॥

११६. यस्ते नूनं शतक्रतविन्द्र द्युम्नितमो मदः । तेन नूनं मदे मदेः ॥२॥

है शतकर्मा इद्धदेव ! आपके लिए अत्यन्त तेजस्वी, अभिषुत किया हुआ सोमरस तैयार है । उसको पान

करके आप तृप्त हों और धनादि देकर हमको आनन्दित करें ॥२ ॥

१९७. गाव उप वदावटे मही यज्ञस्य रप्सुदा । उभा कर्णा हिरण्यया ॥३ ॥

सूर्य रश्मियाँ यज्ञार्थ स्थित, उस पृथ्वी को (अन्नादि उत्पन्न करके) यज्ञीय रूप प्रदान करने वाली हैं, जिसके

दोनों छोर चमकीले हैं ॥३ ॥

[पृथ्वी के दोनों धरुवो पर चुम्बकीय तरगों का प्रचण्ड प्रवाह है, चुप्बक्ीय ऊर्जा के कारण उन्हें चमकीला कहा गया है।]

११८, अरमश्वाय गायत श्रुतकक्षारं गवे । अरमिन्द्रस्य धाप्ने ॥४॥

हे श्रुवकक्ष-कषि ! आप गौओं, अश्वौ और इनदरदेव के आवास (स्वर्ग) की प्राप्ति के लिए पर्याप्त स्तोत्र

का गान करें ॥४॥

११९. तमिद्धं वाजयामसि महे वृत्राय हन्तवे । स वृषा वृषभो भुवत्‌ ॥५॥

जो वृत्रहन्ता है हम स्तोता उनकी प्रशंसा और स्तुति करते हैं, वे दाता इन्द्र हमें धन-धान्य से पूर्ण करें ॥५ ॥

१२०. त्वमिन्द्र बलादधि सहसो जात ओजसः । त्वं सन्वृषन्वृषेदसि ॥६॥

हे इन्द्रदेव आप महान्‌ शक्तिशाली है ! अपने साहस, बल ओर्‌ सामर्थ्य के कारण सबसे सिद्ध श्रेष्ठ हुए

है । श्रेष्ठ फलों की वर्षा करने में आप समर्थ हैं ॥६ ॥

१२९. यज्ञ इन्द्रमवर्धयद्यद्धूमि व्यवर्तयत्‌ । चक्राण ओपशं दिवि ॥७ ॥

जिस यज्ञ प्रक्रिया ने पृथ्वी को आकाश में लटकाकर, घुमाते हुए रखा है, उस यज्ञ ने इद्धदेव का यशवर्धन

भी किया है ॥७ ॥

[| पृथ्वी का आकाश में पूमना पश्चिम वालों के लिये नवीन खोज हो सकती है, वेदज्ञो के लिश नहीं |} गीता पे कहा

जया है-- सृष्टि यज़सहित बनायी गयी है । इस चा से उसी व्यापक यज्ञ का स्वरूप स्पष्ट होता है ।]

१२२, यदिन्द्राहं यथा त्वमीशीय वस्व एक इत्‌ । स्तोता मे गोसखा स्यात्‌ ॥८ ॥

हे इद्धदेव ! जिस प्रकार आप सारे ऐश्र्य के स्वामी हैं, वैसा यदि मै बन जाऊं, तो मेरो स्तुति करने चार+

गो आदि, धन-धान्य से युक्त हो जाएँ ॥८ ॥

[कहो ऐज्वर्य पिलने पर उसका उपयोग अधावप्रस्वो का अथाव पिटाने के लिये किव जाने का संकेत हैं । |

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