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ब्राह्मापर्व ] » पतिक्रता खियोंके कर्तव्य एवं सदाचचारको वर्णन « ३७

किंतु व्यवहारमें विश्वस्तके समान हो चेष्टा दिखानी चाहिये। मध्यम सी दान और भेदसे ओर अधम स्रीको भेद और

विदोषरूपसे उसे पाकादि क्रियाओमें ही नियुक्त करना चाहिये। दण्डनीतिसे वज्ञीभृत करे । परंतु दण्ड देनेके अनन्तर भी

स्नीको किसी भी समय खाली नहीं बैठना चाहिये।

दरिद्रता, अति-रूपकता, असत्‌-जनोंका सङ्ग, स्वतन्त्रता,

पेयादि द्र्यका पान करना तथा अभक्षय-भक्षण करना, कथा,

गोष्टौ आदि प्रिय लगना, काम न करना, जादू-टोना

करनेवाली, भिक्षुकी, कुदिटनी, दाई, नटी आदि दुष्ट स्वियोके

सङ्ग उद्यान, यात्रा, निमन्त्रणं आदिमे जाना, अत्यधिक

तीर्थयात्रा करना अधवा देवताके दर्शनोंके लिये घूमना, पतिके

साथ बहुत वियोग होना, कठोर व्यवहार करना, पुरुषोंसि

अत्यधिक वार्तालाप करना, अति क्रूर, अति सौम्य, अति

निडर होना, ईर्ष्या तथा कृपण होना और किसी अन्य स्तके

वज्ञीभूत हो जाना--ये सब समीके दोष उसके विनादाके हेतु

हैं। ऐसी ल्ि्योकि अधीन यदि पुरुष हो जाता है तो वह भी

निन्दनीय हो जाता है। यह पुरुषकी ही अयोग्यता है कि उसके

भृत्य बिगड़ जाते हैं। स्वामी यदि कुझल न हो तो भृत्य और

ख््री बिगड़ जाते हैं, इसलिये समयके अनुसार यथोचित रीतिसे

ताडने और झासनसे जिस भाँति हो इनको रक्षा करनी

चाहिये। नारी पुरुषका आधा शरीर है, उसके बिना धर्म-

क्रियाओंकी साधना नहीं हो सकती । इस कारण खीका सदा

आदर करना चाहिये। उसके प्रतिकूल नहीं करना चाहिये।

खीके पतिव्रता होनेके प्रायः तीन कारण देखे जाते

है-- (१) पर-पुरुषमें विरक्ति, (२) अपने पतिमें प्रीति तथा

(३) अपनी रक्षामें समर्थता'।

उत्तम स््रीकों साम तथा दाननीतिसे अपने अधीन रखे।

साम-दान आदिसे उसको प्रसन्न कर ले। भर्ताका अहित

करनेवाली और व्यभिचारिणी स्री कालकूट विषके समान होती

है, इसलिये उसका परित्याग कर देना चाहिये। उत्तम कुलमें

उत्पन्न पतित्रता, विनीत और भर्ताका हित चाहनेवाली बीका

सदा आदर करना चहिये । इस रीतिसे जो पुरुष चरता है वह

्रिवर्गकी प्राप्ति करता है और स्ेकमे सुख पाता है ।

ब्रह्माजी बोले--मुनीश्चरो ! मैंने संक्षेपमें पुरुषोंको

ख्ियोंके स्वथ कैसे व्यवहार करना चाहिये, यह बताया । अब

पुस्षोंके साथ खियोको कैसा व्यवहार करना चाहिये, उसे बता

रहा हूँ आप सब सुनें--

पतिकी सम्यक्‌ आगाधना करनेसे स्त्रियोंको पतिक प्रेम

पराप्त देता है तथा फिर पुत्र तथा स्वर्ग आदि भी उसे प्राप्त हो

जाते हैं, इसलिये स्रीको पतिकी सेका करना आवश्यक है।

सम्पूर्ण कार्य विधिपूर्वक किये जानेपर ही उत्तम फल देते हैं

और विधि-निषेधका ज्ञान दाखसे जाना जाता है। स्थियोंका

दस्मे अधिकार नहीं है और न प्रन्थोंके धारण करनेमें

अधिकार है। इसलिये स्त्रौद्ाय शासन अनर्थकारी माना जाता

दिर । खोको दूसरेसे विधि-निषेध जाननेकी अपेक्षा रहती है ।

पहले तो उसे भर्ता सब धर्मोंका निर्देश करता है और भर्ताके

सेके अनन्तर पुत्र उसे विधवा एव पतिग्रताके धर्म बताये ।

बुद्धिके विकल्पोंकों छोड़तर अपने बड़े पुरुष जिस मार्गपर

चले हों उसीपर चलनेमें उसका सब प्रकारसे कल्याण है।

पतिव्रता स्त्री ही गृहस्यके घर्मांका मूल है। (अध्याय ८-९)

पतित्रता खियोके कर्तव्य एवं सदाचारका वर्णन, स्त्रियोंके लिये गृहस्थ-धर्मके

उत्तम व्यवहारकी आवश्यक बातें

ब्रह्माजी योले-- मुनी्चरो ! गृहस्य -धर्मका मूल ध्यानपूर्वक सुनें

पतित्रता स्त्री है, पतिव्रता सी पतिका आराधन किस विधिसे

करें, उसका अब मैं वर्णन करता हूँ। आप सव इसे

१-सतीत्वे पदोः खौणों प्रदृष्ट कारणत्रयम्‌। परपुंसामसशीति: प्रिये प्रीति; खरे ॥

२- शाख्राधिकरों ¬ खौणा = प्रन्धानी च धारणे ; तस्पादिहान्ये मन्यतत

आयधना करने योग्य पतिके आराधनकी विधि यह है

कि उसकी चित्तवृत्तिको भलीभाँति जानकर्‌ उसके अनुकूल

(ब्रह्यपर्व ८ । ६६)

तच्छासनमनर्धकम्‌ ॥ (ब्राह्मपर्व ९।६)

३- इस प्रकरणयें आगेके कुछ अंप्रा--ऐोरक्षा, व्यापार, कृषि और स्प्रेक-सेचालन आदि विषय प्रायः यार्ताझास्तनसे सम्बन्धित हैं, जो लगभग

नष्प्राय हो गये हैं। इसका संक्षिप्त विवरण भविष्यपुणणयें घिलता है, जिसके कुछ अवा यहाँ दिये जा रहे हैं।

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