४० |] [ ब्रह्माण्ड पुराण
वे सब आपके पुत्र अत्यन्त कर थे--पाप कर्मों का समाचरण करने
वाले तथा समस्त लोकों के उपरोधक थे । क्योकि ऐसे ही जघन्य थे अतः
हे राजेन्द्र अव आप उनके लिए शोक करने के योग्य नहीं ह ।१५। आप
तो ध्ैय को ही धन मानने वाले हैँ अतएव आपको धीरज की रक्षा करनी
चाहिए। जो भी कुछ भवितव्यता होती है तथा नष्ट हो जाता है और
ब्यतीत हो जाता है उसको पण्डित लोग नहीं सोचा करते हैं ।१६। इस
कारण से अब इस अपने अ शुमान् पौत्र को जो महान् मतिमान् है हे त्रप
श्रेष्ठ! उस अण्व को लाने के कार्य में नियुक्त करो ।१७। समस्त सदस्य
ओर ऋत्विजो मे युक्त उस नृप शादू ल से यही कहकर सभी के देखते हुए
एक ही क्षण में नारदजी अन्तर्धनि हो गये थे ।१८ फिर उस राजा ने
नारदजी के कहे हुए उन वचनो का श्रवण करके भी महान् दुःख और शोक
से पूर्णतया घिरा हुआ होकर उस उदार बुद्धि वाले ने बहुत काल तक
चिन्तन किया था ।१६। उस समय में राजा सभा में नीचे की ओर मुख
वाला होकर बंठे हुए थे । उसी समय में देश और काल के ज्ञाता वसिष्ठजी
ने आकर राजा को सान््त्वना देते हुए कहा था ।२०। आप तो धेयं को बहुत
महत्त्व देने वाले हैं फिर आप जते महान् पुरुषों को यह ऐसा अवसर क्यों
प्राप्त हो रहा है। यदि आपके हृदय में भी शोक ने स्थान ग्रहण कर लिया
है तो धीरता से क्या फल होता है । अर्थात् फिर तो धयं व्यथे हो है ।२१।
दौम॑नस्यं शिविलयन्सवरं दिष्टवगानुगम् ।
मन्वानोऽनं तरं कृत्यं कतु महेस्यसंणयम् ॥२२
वसिष्ठेन मुक्तस्तु राजा कार्याथतत्त्ववित् ।
धृति सत्त्वं समालंब्य तथेति प्रत्यभाषत १२३
अशमत समाहूय पौत्रं विनयशालिनम् ।
ब्रह्म क्षत्न सभामध्ये शनेरिदमभाषत २८
ब्रह्मदंडहता: सर्वे पितरस्तव पत्रक ।
पतिताः पापकर्माणो निरये शाश्वती: समा: ॥२५
त्वमेव संततिमंह्य राज्यस्यास्य च रक्षिता ।
त्वदायत्तमजेषं मे श्र योऽमूत्र परत्र च ।\२६
सत्वं गच्छ ममादेनास्पाताले कपिलांतिकम् ।